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श्री दशवैकालिकसूत्रौं भाषांतर
है, वह समाज, राष्ट्र के लिए प्रकाश स्तंभ की तरह उपयोगी होता है। वह स्वकल्याण के साथ ही परकल्याण में लगा रहता है। धम्मपद में भिक्षु के अनेक लक्षण बताए गये हैं, जो प्रस्तुत अध्ययन में बताए गए लक्षणों से मिलतेजुलते हैं। विश्व के अनेक मूर्धन्य मनीषियों ने भिक्षु की विभिन्न परिभाषाएं की हैं। सभी परिभाषाओं का सार संक्षेप में यह है कि भिक्षु का जीवन सामान्य मानव के जीवन से अलग-थलग होता है। वह विकार और वासनाओं से एवं राग-द्वेष से ऊपर उठा हुआ होता है। उसके जीवन में हजारों सद्गुण होते हैं। वह सद्गुणों से जन-जन के मन को आकर्षित करता है। वह स्वयं तिरता है और दूसरों को तारने का प्रयास करता है । भगवान् महावीर स्वयं भिक्षु थे। जब कोई अपरिचित व्यक्ति उनसे पूछता कि आप कौन हैं तो संक्षेप में वे यही करते कि मैं भिक्षु हूँ । भिक्षु के श्रमण, निर्ग्रन्थ, मुनि, साधु आदि पर्यायवाची शब्द हैं। भिक्षुचर्या की दृष्टि से इस अध्ययन का बहुत ही महत्त्व है। श्रमण जीवन की महिमा उसके त्याग और वैराग्य युक्त जीवन में रही हुई है।
रति : विश्लेषण
से दशवैकालिक के दस अध्ययनों के पश्चात् दो चूलिकाएं हैं। प्रथम चूलिका 'रतिवाक्या' के नाम. विश्रुत है। रति मोहनीयकर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों में से एक प्रकृति है, जो नोकषाय के अन्तर्गत है। जैन मनीषियों ने 'नो' शब्द को साहचर्य के अर्थ में ग्रहण किया है। क्रोध, मान, माया, लोभ ये प्रधान कषाय हैं। प्रधान कषायों के सहचारी भाव अथवा उनकी सहयोगी मनोवृत्तियाँ नोकषाय कहलाती हैं। १३७ पाश्चात्य विचारक फ्रायड ने कामवासना को प्रमुख मूल वृत्ति माना है और भय आदि को प्रमुख आवेग माना है। जैनदर्शन की दृष्टि से कामवासना सहकारी कषाय है या उपआवेग है, जो कषाय की अपेक्षा कम तीव्र है। जिन मनोभावों के कारण कषाय उत्पन्न होते हैं, वे नोकषाय हैं। इन्हें उपकषाय भी कहते हैं। ये भी व्यक्ति के जीवन को बहुत प्रभावित करते हैं। नोकषाय व्यक्ति के आन्तरिक गुणों को उतना प्रत्यक्षतः प्रभावित नहीं करते जितना शारीरिक और मानसिक स्थिति को करते हैं। जबकि कषाय शारीरिक और मानसिक स्थिति को प्रभावित करने के साथ ही सम्यक् दृष्टिकोण को, आत्मनियंत्रण आदि को प्रभावित करते हैं, जिससे साधक न तो सम्यक्त्व को प्राप्त कर सकता है और न आचार को । रति का अर्थ है अभीष्ट पदार्थों पर प्रीतिभाव या इन्द्रियविषयों में चित्त की अभिरतता । रति के कारण ही आसक्ति और लोभ की भावनाएं प्रबल होती हैं । १३८
असंयम में सहज आकर्षण होता है पर त्याग और संयम में सहज आकर्षण नहीं होता । इन्द्रियवासनाओं की परितृप्ति में जो सुखानुभूति प्रतीत होती है वह सुखानुभूति इन्द्रिय-विषयों के विरोध में नहीं होती। इसका मूल कारण है – चारित्रमोहनीय कर्म की प्रबलता । जब मोह के परमाणु सक्रिय होते हैं तब भोग में आनन्द की अनुभूति होती है। जिस व्यक्ति को सर्प का जहर चढ़ता है, उसे नीम के पत्ते भी मधुर लगते हैं। जिनमें मोह के जहर की प्रबलता है, उन्हें भोग प्रिय लगते हैं। जिनमें चारित्र मोह की अल्पता है, जो निर्मोही हैं, उन्हें भोग प्रिय नहीं लगते और न वे सुखकर ही प्रतीत होते हैं। भोग में सुख आदि की अनुभूति का आधार चारित्रमोहनीय कर्म है।
मोह एक भयंकर रोग के सदृश है, जो एक बार के उपचार से नहीं मिटता । उसके लिए सतत उपचार और सावधानी की आवश्यकता है। जरा सी असावधानी रोग को उभार देती है। मोह का उभार न हो और साधक मोह से विचलित न हो, इस दृष्टि से प्रस्तुत चूलिका अध्ययन का निर्माण हुआ है। आचार्य हरिभद्रसूरिजी ने लिखा है
१३७ अभिधानराजेन्द्रकोष, खण्ड ४, पृ. २१६१
१३८ (क) अभिधानराजेन्द्रकोष खण्ड ६, पृ. ४६७
(ख) यदुदयाद्विषयादिष्वौत्सुक्यं सा रतिः । - सर्वार्थसिद्धि ८-९