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________________ ૨૮ श्री दशवैकालिकसूत्र भाषांतर इनका क्या उद्देश्य है, इसकी सम्यक् जानकारी प्रस्तुत अध्ययन में है। यह अध्ययन नौवें पूर्व की तीसरी उद्धृत है। १३३ भिक्षु : एक चिन्तन दसवें अध्ययन का नाम सभिक्षु अध्ययन है। जो भिक्षा कर अपना जीवन-यापन करता है, वह भिक्षु कहलाता है। भिक्षा भिखारी भी मांगते हैं, वे दर-दर हाथ और झोली पसारे हुए दीन स्वर में भीख मांगते हैं। जो उन्हें भिक्षा देता है, उन्हें वे आशीर्वाद प्रदान करते हैं और नहीं देनेवाले को कटु वचन कहते हैं, शाप देते हैं तथा रुष्ट होते हैं। भिखारी की भिक्षा केवल पेट भरने के लिए होती है। उस भिक्षा में कोई पवित्र उद्देश्य नहीं होता और न कोई शास्त्रसम्मत विधिविधान ही होता है। वह भिक्षा अत्यन्त निम्न स्तर की होती है। इस प्रकार की भिक्षा पौरुषघ्नी भिक्षा है।१३४ वह भिक्षा पुरुषार्थ का नाश कर अकर्मण्य और आलसी बनाती है। ऐसे पुरुषत्वहीन मांगखोर व्यक्तियों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। वे मांग कर खाते ही नहीं. जमा भी करते हैं और दुर्व्यसनों में उसका उपयोग करते हैं। वस्तु श्रमण अदीनभाव से अपनी श्रमण-मर्यादा और अभिग्रह के अनुकूल जो भिक्षा प्राप्त होती है उसे प्रसन्नता से ग्रहण करता है। भिक्षा में रूक्ष और नीरस पदार्थ मिलने पर वह रुष्ट नहीं होता और उत्तम स्वादिष्ट पदार्थ मिलने पर तुष्ट नहीं होता । भिक्षा में कुछ भी प्राप्त न हो तो भी वह खिन्न नहीं होता और मिलने पर हर्षित भी नहीं होता । वह दोनों ही स्थितियों में समभाव रखता है। इसलिए श्रमण की भिक्षा सामान्य भिक्षा न होकर सर्वसम्पतकारी भिक्षा है। सर्वसम्पतकारी१३५ भिक्षा देने वाले और लेनेवाले दोनों के लिए कल्याणकारी है। जिसमें संवेग, निर्वेद, विवेक, सुशीलसंसर्ग, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, विनय, शांति, मार्दव, आर्जव, तितिक्षा, आराधना, आवश्यक शुद्धि प्रभृति सद्गुणों का साम्राज्य हो वह भिक्षु है । - सूत्रकृतांगसूत्र में भिक्षु की परिभाषा इस प्रकार है जो निरभिमान, विनीत, पापमल को धोने वाला, दान्त, बन्धनमुक्त होने योग्य, निर्ममत्व, विविध प्रकार के परीषहों और उपसर्गों से अपराजित, अध्यात्मयोगी, • विशुद्ध चारित्र सम्पन्न, सावधान, स्थितात्मा, यशस्वी, विवेकशील तथा परदत्त भोजी है, वह भिक्षु है । १३६ जो कर्मों 1. का भेदन करता है वह भिक्षु कहलाता है। भिक्षु के भी द्रव्यभिक्षु और भावभिक्षु ये दो प्रकार हैं। द्रव्यभिक्षु माँगकर खाने के साथ ही त्रस, स्थावर जीवों की हिंसा करता है; सचित्त भोजी है; स्वयं पकाकर खाता है। सभी प्रकार की सावद्य प्रवृत्ति करता है; संचय करके रखता है; परिग्रही है। भावभिक्षु वह है जो पूर्ण रूप से अहिंसक है; सचित्तत्यागी है, तीन करण, तीन योग से सावद्य प्रवृत्ति का परित्यागी है; आगम में वर्णित भिक्षु के जितने भी सद्गुण हैं, उन्हें धारण करता है। १३३ दशवैकालिकनिर्युक्ति १७ १३४ अष्टक प्रकरण ५।१ - . १३५ सर्वसम्पत्करी चैका पौरुषघ्नी तथापरा । वृत्तिभिक्षा च तत्त्वज्ञैरिति भिक्षा त्रिधोदिता ।। १३६ सूत्रकृतांग १।१६।३ से भिक्षु की गौरव गरिमा अतीत काल से ही चली आयी हैं। जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों ही परम्पराओं में भिक्षु शीर्षस्थ स्थान पर आसीन रहा है। जैन परम्परा में भिक्षु को परम पूज्य स्थान प्राप्त है। वैदिक परम्परा में संन्यासी पूज्य रहा है, उसे दो हाथों वाला साक्षात् परमेश्वर माना है – 'द्विभुजः परमेश्वरः' । बौद्ध परम्परा में भी भिक्षु का महत्त्व कम नहीं रहा है, भिक्षु धर्म-संघ का अधिनायक रहा है। भिक्षु का जीवन सद्गुणों का पुञ्ज होता - • अष्टक प्रकरण ५।१
SR No.005784
Book TitleDashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages402
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & agam_dashvaikalik
File Size9 MB
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