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________________ श्री दशवैकालिकसूत्र भाषांतर ૨૭ की सुविधाएं प्रदान करती थी, जिसके फलस्वरूप आइन्सटीन जैसा विश्वविश्रुत वैज्ञानिक उस जाति में पैदा हुआ अनेक मुर्धन्य वैज्ञानिक और लेखक यहूदी जाति की देन हैं। अमेरिका और रूस में जो विज्ञान की अभूतपूर्व प्रगति हुई है, उसका मूल कारण भी वहाँ पर वैज्ञानिकों और साहित्यकारों का सम्मान रहा है। भारत में भी राजा गण जब कवियों को उनकी कविताओं पर प्रसन्न होकर लाखों रुपया परस्कार-स्वरूप दे देते थे तब कविगण जमकर के साहित्य की उपासना करते थे। गीर्वाण-गिरा का जो साहित्य समृद्ध हुआ उसका मूल कारण विद्वानों का सम्मान था। ज्ञानविनय के पांच भेद औपपातिक में प्रतिपादित हैं। दर्शनविनय में साधक सम्यग्दृष्टि के प्रति विश्वास तथा आदर भाव प्रकट करता है। इस विनय के दो रूप हैं – १. शुश्रूषाविनय, २. अनाशातनाविनय। औपपातिक के अनुसार दर्शनविनय के भी अनेक भेद हैं। देव, गुरु, धर्म अदि का अपमान हो, इस प्रकार का व्यवहार नहीं करना चाहिए। आशातना का अर्थ ज्ञान आदि सद्गुणों की आय - प्राप्ति के मार्ग को अवरुद्ध करना है।१२९ १. अर्हत्, २. सिद्ध, ३. जिन प्ररूपित धर्म, ४. आचार्य, ५. उपाध्याय, ६. स्थविर, ७. कुल, ८. गण, ९.. संघ, १०. क्रिया, ११. गणि, १२. ज्ञान, १३. ज्ञानी इन तेरह की आशातना न करना, बहुमान करना भक्ति और गुण स्तुति करने से बावन अनाशतनाविनय के भेद प्रतिपादित हैं। सामायिक आदि पाँच चारित्र और चारित्रवान् के प्रति विनय करना चारित्रविनय है। अप्रशस्त प्रवृत्ति से मन को दूर रखकर मन से प्रशस्त प्रवृत्ति करना मनोविनय है। सावध वचन की प्रवृत्ति न करना और वचन की निरवद्य व प्रशस्त प्रवृत्ति करना वचनविनय है। काया की प्रत्येक प्रवृत्ति में जागरूक रहना, चलना, उठना, बैठना, सोना आदि सभी प्रवृत्तियाँ उपयोगपूर्वक करना प्रशस्त कायविनय है। लोकव्यवहार की कुशलता जिस विनय से सहज रूप से उपलब्ध होती है वह लोकोपचार विनय है। उसके सात प्रकार हैं। गुरु आदि के सन्निकट रहना, गुरुजनों की इच्छानुसार कार्य करना, गुरुं के कार्य में सहयोग करना, कृत उपकारों का स्मरण करना, उनके प्रति कृतज्ञ भाव रखकर उनके उपकार से उऋण होने का,प्रयास करना, रुग्ण के लिए औषधि एवं पथ्य की गवेषणा करना. देश एवं काल को पहचान कर काम करना, किसी के विरुद्ध आचरण न करना, इस प्रकार विनय की व्यापक पृष्ठभूमि है, जिसका प्रतिपादन इस अध्ययन में किया गया है। यदि शिष्य अनन्त ज्ञानी हो जाए तो भी गुरु के प्रति उसके अन्तर्मानस में वही श्रद्धा और भक्ति होनी चाहिए जो पूर्व में थी। जिन ज्ञानवान् जनों से किंचिन्मात्र भी ज्ञान प्राप्त किया है उनके प्रति सतत विनीत रहना,चाहिए। जब शिष्य में विनय के संस्कार प्रबल होते हैं तो वह गुरुओं का सहज रूप से स्नेह-पात्र बन जाता है। अविनीत असंविभागी होता है और जो असंविभागी होता है उसका मोक्ष नहीं होता।३° इस अध्ययन में चार समाधियों का उल्लेख है - विनयसमाधि, श्रुतसमाधि, तपसमाधि और आचारसमाधि। आचार्य हरिभद्रसूरिजी३१ ने समाधि का अर्थ आत्मा का हित, सुख और स्वास्थ्य किया है। विनय, श्रुत, तप और आचार के द्वारा आत्मा का हित होता है, इसलिए वह समाधि है। अगस्त्यसिंह स्थविर ने समारोपण तथा गुणों के समाधान अर्थात् स्थिरीकरण या स्थापन को समाधि कहा है। उनके अभिमतानुसार विनय, श्रुत, तप और आचार के समारोपण या इनके द्वारा होने वाले गुणों के समाधान को विनयसमाधि, श्रुतसमाधि,तपसमाधि तथा आचारसमाधि कहा है।१३२ विनय, श्रुत, तप तथा आचार, १२९ आसातणा णामं नाणादिआयस्स सातणा। --- आवश्यकवृत्ति (आचार्य जिनदासगणि) १३० असंविभागी न हु तस्स मोक्खो --- दशवैकालिक ९।२।२२ १३१ समाधान समाधिः --- परमार्थत आत्मनो हितं सुखं स्वास्थ्यम्। --- दशवकालिक हरिभद्रीया वृत्ति, पत्र २५६ . १३२ जं विणयसमारोवणं विणयेण वा जं गुणाण समाधाणं एस विणयसमाधी भवतीति। - दशवकालिक अगस्त्यसिंह चूर्णि
SR No.005784
Book TitleDashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages402
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & agam_dashvaikalik
File Size9 MB
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