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श्री दशवैकालिकसूत्र भाषांतर
रहे हैं, इसलिए मुझे गुरुजनों के हितकारी, लाभकारी आदेश का पालन करना चाहिए, १२४ उनके आदेश की अवहेलना करना और अनुशासन पर क्रोध करना, मेरा कर्त्तव्य नहीं है। १२५
विनय का दूसरा अर्थ आत्मसंयम है। उत्तराध्ययन में 'अप्पा चेव दमेयव्वो' आत्मा का दमन करना चाहिए; जो आत्मा का दमन करता है, वह सर्वत्र सुखी होता है। विवेकी साधक संयम और तप के द्वारा अपने आप पर नियंत्रण करता है। जो आत्मा विनीत होता है, वह आत्मसंयम कर सकता है, वही व्यक्ति गुरुजनों के अनुशासन को भी मान सकता है, क्योंकि उसके मन में गुरुजनों प्रति अनन्त आस्था होती है। वह प्रतिपल, प्रतिक्षण यही सोचता है कि गुरुजन जो भी मुझे कहते हैं, वह मेरे हित के लिए है मेरे सुधार के लिए है। कितना गुरुजनों का मुझ पर स्नेह है कि जिसके कारण वे मुझे शिक्षा प्रदान करते हैं। शिष्य गुरुजनों के समक्ष विनीत मुद्रा में बैठता है, गुरुजनों के समक्ष कम बोलता है या मौन रहता है। गुरुजनों का विनयकर उन्हें सदा प्रसन्न रखता है और ज्ञानआराधना में लीन रहता है। विनीत व्यक्ति अपने सद्गुणों के कारण आदर का पात्र बनता है । विनय ऐसा वशीकरण मंत्र है जिससे सभी सद्गुण खिंचे चले आते हैं। अविनीत व्यक्ति सड़े हुए कानों वाली कुतिया सदृश है, जो दर-दर ठोकरें खाती है, अपमानित होती है। लोग उससे घृणा करते हैं। वैसे ही अविनीत व्यक्ति सदा अपमानित होता है। इस तरह विनय के द्वारा आत्मसंयम तथा शील-सदाचार की भी पावन प्रेरणा दी गयी है।
विनय का तृतीय अर्थ नम्रता और सद्व्यवहार है । विनीत व्यक्ति गुरुजनों के समक्ष बहुत ही नम्र होकर रहता है। वह उन्हें नमस्कार करता है तथा अञ्जलिबद्ध होकर तथा कुछ झुककर खड़ा रहता है। उसके प्रत्येक व्यवहार में विवेकयुक्त नम्रता रहती है। वह न गुरुओं के आसन से बहुत दूर बैठता है, न सटकर बैठता है । वह इस मुद्रा में बैठता है जिसमें अहंकार न झलके । वह गुरुओं की आशातना नहीं करता । इस प्रकार वह नम्रतापूर्ण सद्व्यवहार करता है।
आचार्य नेमिचन्द्रजी के प्रवचनसारोद्धार ग्रन्थ पर आचार्य सिद्धसेनसूरिजी ने एक वृत्ति लिखी है। उसमें उन्होंने लिखा है -क्लेश समुत्पन्न करने वाले आठ कर्मशत्रुओं को जो दूर करता है - वह विनय है – 'विनयति क्लेशकारकमष्टप्रकारं कर्म इति विनयः' । विनय से अष्ठकर्म नष्ट होते हैं। चार गति का अन्तकर वह साधक मोक्ष को प्राप्त करता है । विनय सद्गुणों का आधार है। जो विनीत होता है उसके चारों ओर सम्पत्ति मंडराती है और अविनीत के चारों ओर विपत्ति । भगवती, १२६ स्थानांग, १२७ औपपातिक १२८ में विनय के सात प्रकार बताए हैं. - १. ज्ञानविनय, २. दर्शनविनय, ३. चारित्रविनय, ४. मनविनय, ५. वचनविनय, ६. कायविनय, ७. लोकोपचारविनय । ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि को विनय कहा गया है, क्योंकि उनके द्वारा कर्मपुद्गलों का विनयन यानी विनाश होता है। विनय का अर्थ यदि हम भक्ति और बहुमान करें तो ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि के प्रति भक्ति और बुहमान प्रदर्शित करना है। जिस समाज और धर्म में ज्ञान और ज्ञानियों का सम्मान और बहुमान होता है, वह धर्म और समाज आगे बढ़ता है। ज्ञानी धर्म और समाज के नेत्र हैं। ज्ञानी के प्रति विनीत होने से धर्म और समाज में ज्ञान के प्रति आकर्षण बढ़ता है । इतिहास साक्षी है कि यहूदी जाति विद्वानों का बड़ा सम्मान करती थी, उन्हें हर प्रकार
१२४ उत्तराध्ययन १।२७
१२५ उत्तराध्ययन १९
१२६ भगवती २५/७
१२७ स्थानांगसूत्र, ७।१३० १२८ औपपातिक, तपवर्णन