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श्री दशवकालिकसूत्र भाषांतर
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करना चाहिए।११८ विनय का सम्बन्ध हृदय से है। जिसका हृदय कोमल होता है वह गुरुजनों का विनय करता है। अहंकार पत्थर की तरह कठोर होता है, वह टूट सकता है पर झुक नहीं सकता। जिसका हृदय नम्र है, मुलायम है, उसकी वाणी और आचरण सभी में कोमलता की मधुर सुवास होती है। विनय आत्मा का ऐसा गुण है, जिससे आत्मा सरल, शुद्ध और निर्मल बनता है। विनय शब्द का प्रयोग आगम-साहित्य में अनेक स्थलों पर हुआ है। कहीं पर विनय नम्रता के अर्थ में व्यवहत हुआ है तो कहीं पर आचार और उसकी विविध धाराओं के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। जैन परम्परा में विनय शब्द बहुत ही व्यापक अर्थ को लिए हुए है। श्रमण भगवान् महावीर के समय एक सम्प्रदाय था जो विनयप्रधान था।२१९ वह बिना किसी भेदभाव के सबका विनय करता था। चाहे श्रमण मिले, चाहे ब्राह्मण मिले, चाहे गृहस्थ मिले, चाहे राजा मिले या रंक मिले, चाहे हाथी मिले या घोड़ा मिले, चाहे कूकर मिले या शूकर मिले, सब का विनय करते रहना ही उसका सिद्धान्त था।१२० इस मत के वशिष्ठ, पाराशर, जतुकर्म, वाल्मीकि, रोमहर्षिणी, सत्यदत्त, व्यास, तेलापुत्र, इन्द्रदत्त आदि बत्तीस आचार्य थे जो विनयवाद का प्रचार करते थे।१२१ पर जैनधर्म वैनयिक नहीं है, उसने आचार को प्रधानता दी है। ज्ञाताधर्मकथा में सुदर्शन नामक श्रेष्ठी ने थावच्चापुत्र अणगार से जिज्ञासा प्रस्तुत की - आपके धर्म और दर्शन का मूल क्या है? थावच्चापुत्र अणगार ने चिन्तन की गहराई में डुबकी लगाकर कहा – सुदर्शन! हमारे धर्म और दर्शन का मूल विनय है और वह विनय अगार और अनगार विनय के रूप में है। अगार और अनगार के जो व्रत और महाव्रत हैं उनको धारण करना ही अगार-अनगार विनय है।१२२ इस अध्ययन में विनय-समाधि का निरूपण है तो उत्तराध्ययन के प्रथम अध्ययन का नाम विनयश्रुत दिया गया है।
यह सहज जिज्ञासा हो सकती है कि विनय को तप क्यों कहा गया है? सद्गुरुओं के साथ नम्रतापूर्ण व्यवहार करना यह प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है। फिर उसमें ऐसी क्या विशेषता है जो उसे तप की कोटि में परिगणित किया गया है? उत्तर में निवेदन है कि विनय शब्द जैन साहित्य में तीन अर्थों में व्यवहत हुआ है -
१. विनय – अनुशासन, २. विनय - आत्मसंयम - सदाचार. ३. विनय - नम्रता – सद्व्यवहार।
उत्तराध्ययन के प्रथम अध्ययन में जो विनय का विश्लेषण हुआ है वहाँ विनय अनुशासन के अर्थ में आया है। सद्गुरुओं की आज्ञा का पालन करना, उनकी भावनाओं को लक्ष्य में रखकर कार्य करना, गुरुजन शिष्य के हित के लिए कभी कठोर शब्दों में हित-शिक्षा प्रदान करें, उपालम्भ भी दें तो शिष्य का कर्तव्य है कि वह गुरु की बात को बहुत ही ध्यानपूर्वक सुने और उसका अच्छी तरह से पालन करे। 'फरुसं पि अणुसासणं'१२३ अनुशासन चाहे कितना भी तेजतर्रार क्यों न हो, शिष्य सदा यही सोचे कि गुरुजन मेरे हित के लिए यह आदेश दे ११८ विणओ वि तवो वि धम्मो तम्हा विणओ पउंजियव्वो। --- प्रश्नव्याकरण, संवरद्वार ३५ ११९ सूत्रकृतांग १।१२।१ १२० प्रवचनसारोद्धार सटीक, उत्तरार्द्ध, पत्र ३४४ १२१ (क) तत्त्वार्थराजवार्तिक ८।१, पृ. ५६२
(ख) उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति, पृ. ४४४ १२२ ज्ञातासूत्र ५ १२३ उत्तराध्ययन १।२९