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श्री दशवैकालिकसूत्र भाषांतर
जो मानव जाति, धन और गोत्र का अभिमान करता है और अपने बन्धुओं का अपमान करता है वह उसी के पराभव का कारण है। ११० मायावी मरकर नरक में उत्पन्न होता है और दुर्गति को प्राप्त करता है । १११ इस प्रकार बौद्धधर्म में कषाय या अशुभ वृत्तियों के परिहार पर बल दिया है। बौद्धदर्शन की भांति कषाय निरोध का संकेत वैदिकदर्शन में भी प्राप्त है। छान्दोग्योपनिषद् में कषाय शब्द राग-द्वेष के अर्थ में प्रयुक्त है। ११२ महाभारत में कषाय शब्द अशुभ मनोवृत्तियों के अर्थ में आया है। वहाँ पर इस बात पर प्रकाश डाला है कि मानव जीवन के तीन सोपान हैं – ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम और वानप्रस्थ आश्रम । इन तीन आश्रमों में कषाय को पराजित कर फिर संन्यास आश्रम का अनुसरण करे। ११३ श्रीमद्भगवद्गीता में कषाय के अर्थ में ही आसुरी वृत्ति का उल्लेख है। दर्प, मान, , क्रोध आदि आसुरी संपदा है। ११४ अहंकारी मानव बल, दर्प, काम, , क्रोध के अधीन होकर अपने और दूसरों के शरीर में अवस्थित परमात्मा से विद्वेष करने वाले होते हैं। ११५ काम, क्रोध और लोभ ये नरक के द्वार हैं, अतः इन तीनों द्वारों का त्याग कर देना चाहिए और जो इनको त्यागकर कल्याणमार्ग का अनुसरण करता है वह परमगति को प्राप्त करता है। इस प्रकार हम देखते हैं वैदिक परम्परा के ग्रन्थों में भी क्रोध, मान आदि आवेगों को अध्यात्मिक विकास में बाधक माना है। यह आवेग सामाजिक सम्बन्धों में भी कटुता उत्पन्न करता है। सामाजिक और अध्यात्मिक दृष्टि से इनका परिहार आवश्यक है। जितना जितना कषायों का आवेग कम होगा उतनी ही साधना में स्थिरता और परिपक्वता आयेगी । इसलिए आठवें अध्ययन में कहा गया है- श्रमण को कषाय का निग्रह
दम्भ,
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मन का सुधान करना चाहिए। इस अध्ययन में इस बात पर बल दिया गया है कि श्रमण इन्द्रिय और मन का अप्रशस्त प्रयोग न करे, वह प्रशस्त प्रयोग करे। यह शिक्षा ही इस अध्ययन की अन्तरात्मा है। इसीलिएनियुक्तिकार की दृष्टि से 'आचारप्रणिधि' नाम का भी यही हेतु है । ११६
'प्रणिधि' शब्द का प्रयोग कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में अनेक बार किया है । वहाँ गूढ़ पुरुष - प्रणिधि, - प्रणिधि, दूत- प्रणिधि आदि प्रणिधि पद वाले कितने ही प्रकरण है। अर्थशास्त्र के व्याख्याकार ने प्रणिधि का . अर्थ कार्य में लगाना तथा व्यापार किया है। प्रस्तुत आगम में जो प्रणिधि शब्द का प्रयोग हुआ है वह साधक को आचार में प्रवृत्त करना या आचार में संलग्न करना है। इस अध्ययन में कषायविजय, निद्राविजय, अट्टहासविजय के लिए सुन्दर संकेत किए गये हैं। आत्मगवेषी साधकों के लिए संयम और स्वाध्याय में सतत संलग्न रहने की प्रबल प्रेरणा दी गयी है। जो संयम और स्वाध्याय में रत रहते हैं वे स्व-पर का रक्षण करने में उसी प्रकार समर्थ होते हैं जैसे आयुधों से सज्जित वीर सैनिक सेना से घिर जाने पर भी अपनी और दूसरों की रक्षा कर लेता है। ११७ विनय : एक विश्लेषण
नौवें अध्ययन का नाम विनयसमाधि है। विनय तप है और तप धर्म है। अतः साधक को विनय धारण
११० सुत्तनिपात ७।१
१११ सुत्तनिपात ४० । १३।१
११२ छान्दोग्य उपनिषद् ७।२६।२
११३ महाभारत, शान्ति पर्व २४४ | ३
११४ श्रीमद्भगवद्गीता १६ । ४
११५ श्रीमद्भगवद्गीता १६ । १८
११६ तम्हा उ अप्पसत्थं, पणिहाणं उज्झिऊण समणेणं ।
पणिहामि पसत्थे, भणियो 'आयारपणिहि' त्तिः ।। - दशवैकालिक नियुक्ति ३०८
११७ दशवैकालिक, ८१६१