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श्री दशवैकालिकसूत्र भाषांतर
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के सोलह प्रकार होते हैं। कषाय को चाण्डालचौकड़ी भी कहा गया है। कषाय की तीव्रता अर्थात् अनन्तानुबन्धी कषायोदय के फलस्वरूप जीव अनन्तकाल तक संसार में परिभ्रमण करता है, वह सम्यग्दृष्टि नहीं बन सकता। अप्रत्याख्यानी कषायोदय में श्रावक धर्म स्वीकार नहीं कर सकता। अप्रत्याख्यानी कषायोदय आंशिक चारित्र को नष्ट कर देता है। प्रत्याख्यानी कषाय की विद्यमानता में साधुत्व प्राप्त नहीं होता। ये तीनों प्रकार के कषाय विशुद्ध निष्ठा को और चारित्र धर्म को नष्ट करते हैं। संज्वलन कषायोदय में पूर्ण वीतरागता की उपलब्धि नहीं होती। इसलिए आत्महित चाहनेवाला साधक पाप की वृद्धि करने वाले क्रोध, मान, माया, लोभ - इन चारों दोषों को पूर्णतया छोड़ दे। ये चारों दोष सद्गुणों को नाश करने वाले हैं। क्रोध से प्रीति का, मान से विनय का, माया से मित्रता का और लोभ से सभी सद्गुणों का नाश होता है।०१ योगशास्त्र में आचार्य हेमचन्द्रसूरिजी ने लिखा है - - मान विनय, श्रत, शील का घातक है. विवेकरूपी नेत्रों को नष्ट कर मानव को अन्धा बना देता है। जब क्रोध उत्पन्न होता है तो सर्वप्रथम उसी मानव को जलाता है जिसमें वह उत्पन्न हुआ है। माया अविद्या और असत्य को उत्पन्न करती है। वह शीलरूपी लहलहाते हुए वृक्ष को नष्ट करने में कुल्हाड़ी के सदृश है। लोभ से समस्त दोष उत्पन्न होते हैं। वह सद्गुणों को निगलने वाला राक्षस है और जितने भी दुःख हैं उनका वह मूल है।०२ प्रश्न यह है कि कषाय को किस प्रकार जीता जाए? इस प्रश्न का समाधान करते हुए आचार्य शय्यम्भवसूरिजी ने लिखा है - शान्ति से क्रोध को, मृदुता से मान को, सरलता से माया को और सन्तोष से लोभ को जीतना चाहिए।२०३ आचार्य कुन्दकुन्द०४ तथा आचार्य हेमचन्द्रसूरिजीने १०५ भी शय्यम्भवसूरिजी का ही अनुसरण किया है तथा बौध ग्रन्थ धम्मपद०६ में भी यही स्वर झंकृत हुआ है कि अक्रोध से क्रोध को, साधुता से असाधुता को जीते और कृपणता को दान से, मिथ्याभाषण को सत्य से पराजित करें। महाभारतकार व्यास ने भी इसी सत्य की अपने शब्दों में पुनरावृत्ति की है।०७ कषाय वस्तुतः आत्मविकास में अत्यधिक बाधक तत्त्व है। कषाय के नष्ट होने पर ही भव- : परम्परा का अन्त होता है। कषायों से मुक्त होना ही सही दृष्टि से मुक्ति है।
जैन परम्परा में जिस प्रकार कषायवृत्ति त्याज्य मानी गयी है उसी प्रकार बौद्ध परम्परा में भी कषायवृत्ति को हेय माना है। तथागत बुद्ध ने साधको को सम्बोधित करते हुए कहा -क्रोध का परित्याग करो, अभिमान को छोड़ दो, समस्त संयोजनों को तोड़ दो, जो पुरुष नाम तथा रूप में आसक्त नहीं होता अर्थात् उनका लोभ नहीं करता, जो अकिंचन है उस पर क्लेशों का आक्रमण नहीं होता। जो समुत्पन्न होते हुए क्रोध को उसी तरह निग्रह कर लेता है जैसे सारथी अश्व को, वही सच्चा सारथी है। शेष तो मात्र लगाम पकड़ने वाले हैं।१०८ जो क्रोध करता है वह वैरी है तथा जो मायावी है उस व्यक्ति को वृषल (नीच) जानो।०९ सुत्तनिपात में बुद्ध ने स्पष्ट शब्दों में कहा
१०० दशवकालिक ८१३७ १०१ दशवकालिक ८१३८ १०२ योगशास्त्र ४।१०।१८ १०३ दशवैकालिक ८।३९ १०४ नियमसार ११५ १०५ योगशास्त्र ४।२३ १०६ धम्मपद २२३ १०७ महाभारत, उद्योगपर्व ३९।४२ १०८ धम्मपद २२१-२२२ १०९ सुत्तनिपात ६।१४