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श्री दशवकालिकसूत्र भाषांतर
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का प्रयोग नहीं करना; स्त्रीकथा, राजकथा, चोरकथा, भोजनकथा आदि वचन की अशुभ प्रवृत्ति और असत्य वचन का परिहार करना वचनगुप्ति है।४४ उत्तराध्ययन के अनुसार श्रमण अशुभ प्रवृत्तियों में जाते हुए वचन का निरोध करे।१४५ श्रमण उठने, बैठने, लेटने, नाली आदि लांघने तथा पांचों इन्द्रियों की प्रवृत्ति में नियमन करे।१४६ दूसरे शब्दों में कहा जाए तो बन्धन, छेदन, मारण, आकुंचन, प्रसारण प्रभृति शारीरिक क्रियाओं से निवृत्ति कायगुप्ति है।४७ जैन परम्परा की तरह बौद्ध परम्परा के सुत्तनिपात ग्रन्थ में भी गुप्ति शब्द का प्रयोग हुआ है।१४८ तथागत बुद्ध ने बौद्ध भिक्षुओं को आदेश दिया कि वे मन, वचन और शरीर की क्रियाओं का नियमन करें। तथागत बुद्ध ने अंगुत्तरनिकाय में तीन शुचि भावों का वर्णन किया है - शरीर की शुचिता, वाणी की शुचिता और मन की शुचिता। उन्हों ने कहा
-भिक्षुओं! जो व्यक्ति प्राणीहिंसा से विरत रहता है; तस्कर कृत्य से विरत रहता है; कामभोग सम्बन्धी मिथ्याचार से विरत रहता है, यह शरीर की शुचिता है। भिक्षुओ! जो व्यक्ति असत्य भाषण से विरत रहता है; चूगली करने से विरत रहता है; व्यर्थ वार्तालाप से विरत रहता है; वह वाणी की शुचिता है। भिक्षुओं जो व्यक्ति निर्लोभ होता है; अक्रोधी होता है; सम्यग्दृष्टि होता है; वह मन की शुचिता है।४९ इस तरह तथागत बुद्ध ने श्रमण साधकों के लिए मन, वचन और शरीर की अप्रशस्त प्रवृत्तियों को रोकने का सन्देश दिया है।५० इसी प्रकार गुप्ति के ही अर्थ में वैदिक परम्परा के ग्रन्थों में त्रिदण्डी शब्द व्यवहत हुआ है। दक्षस्मृति में दत्त ने कहा - केवल वांस की दण्डी धारण करने से कोई संन्यासी या त्रिदण्डी परिव्राजक नहीं हो जाता। त्रिदण्डी परिव्राजक वही है जो अपने पास अध्यात्मिक दण्ड रखता है।५१ अध्यात्मिक दण्ड से यहाँ तात्पर्य मन, वचन और शरीर की क्रियाओं का नियंत्रण है। चाहे श्रमण हो, चाहे संन्यासी हो, उनके लिए यह आवश्यक है कि वे मन-वचन-काया की अप्रशस्त प्रवृत्तियों पर नियंत्रण करें। बौद्ध और वैदिक परम्परा की अपेक्षा जैन परम्परा ने इस पर अधिक बल दिया है, जैन श्रमणों के लिए महाव्रत का जहाँ मूलगुण के रूप में विधान है वहाँ समिति और गुप्ति का उत्तरंगुण के रूप में विधान किया गया है, जिनका पालन जैन श्रमण के लिए अनिवार्य माना गया है।
___ इस प्रकार मोह-माया से मुक्त होकर श्रमण को अधिक से अधिक साधना में सुस्थिर होने की प्रबल प्रेरणा इस चलिका द्वारा दी गयी है। 'चइज्ज देहं न हु धम्मसासणं' -शरीर का परित्याग कर द किन्तु धमशासन को न छोड़े-यह है इस चूलिका का संक्षेप सार।
द्वितीय चूलिका का नाम 'विक्क्तिचर्या' है। इसमें श्रमण की चर्या, गुणों और नियमों का प्रतिपादन किया गया है। इसमें अन्धानुसरण का विरोध किया गया है। आधुनिक युग में प्रत्येक प्रश्न बहुमत के आधार पर निर्णीत होते हैं, पर बहुमत का निर्णय सही ही हो, यह नहीं कहा जा सकता है। बहुमत प्रायः मूों का होता है, संसार में सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा मिथ्यात्वियों की संख्या अधिक है; ज्ञानियों की अपेक्षा अज्ञानी अधिक हैं; त्यागियों की अपेक्षा भोगियों का प्राधान्य है; इसलिए साधना के क्षेत्र में बहुमत और अल्पमत का प्रश्न महत्त्व का नहीं है। वहाँ
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१४४ नियमसार ६७ १४५ उत्तराध्ययन २४।२३ १४६ उत्तराध्ययन २४।२४, २५ १४७ नियमसार ६८ १४८ सुत्तनिपात ४३ १४९ अंगुत्तरनिकाय ३।११८ १५० अंगुत्तरनिकाय ३।१२० १५१ दक्षस्मृति ७।२७-३१