________________
૨૦
श्री दशवैकालिकसूत्र भाषांतर
-
श्वेताम्बर साहित्य में अनेक स्थलों पर वस्त्र का विधान श्रमणों के लिए प्राप्त है। आगम साहित्य में सचेलता और 'अचेलता दोनों प्रकार के विधान मिलते हैं। अब प्रश्न यह है- - श्रमण निर्ग्रन्थ अपरिग्रही होता है तो फिर वह वस्त्र किस प्रकार रख सकता है? भंडोपकरण को भी परिग्रह माना गया है। २ पर आचार्य शय्यम्भव ने कहा - " जो आवश्यक वस्त्र - पात्र संयम साधना के लिए हैं वे परिग्रह नहीं हैं, क्योंकि उन वस्त्र पात्रों में श्रमण की मूर्च्छा नहीं होती है। वे तो संयम और लज्जा के लिए धारण किए जाते हैं। वे वस्त्र - पात्र संयम साधना में उपकारी होते हैं, इसलिये वे धर्मोपकरण हैं।" इस प्रकार परिग्रह की बहुत ही सटीक परिभाषा प्रस्तुत अध्ययन में दी गयी है । ८३ वाणी- विवेक : एक विश्लेषण
सातवें अध्ययन का नाम वाक्यशुद्धि है। जैनधर्म ने वाणी के विवेक पर अत्यधिक बल दिया है। मौन रहना वचनगुप्ति है। विवेकपूर्वक वाणी का प्रयोग करना भाषासमिति है। श्रमण असत्य, कर्कश, अहितकारी एवं हिंसाकारी भाषा का प्रयोग नहीं कर सकता। वह स्त्रीविकथा, राजदेशविकथा, चोरविकथा, भोजनविकथा आदि वचन की अशुभ प्रवृत्ति का परिहार करता है।" वह अशुभप्रवृत्तियों में जाते हुए वचन का निरोधकर वचनगुप्ति का पालन करता है । " मुनि प्रमाण, नय, निक्षेप से युक्त अपेक्षा दृष्टि से हित, मित, मधुर तथा सत्य भाषा बोलता है। '६
श्रमण साधना की उच्च भूमि पर अवस्थित है अतः उसे अपनी वाणी पर बहुत ही नियंत्रण और सावधानी रखनी होती है। श्रमण सावद्य और अनवद्य भाषा का विवेक रखकर बोलता है। इस प्रकार वचन समिति का लाभ वक्ता और श्रोता दोनों को मिलता है। प्रस्तुत अध्ययन में श्रमण को किस प्रकार की भाषा बोलनी चाहिए और किस प्रकार की भाषा नहीं, बोलनी चाहिए, इस सम्बन्ध में चिन्तन करते हुए कहा गया है कि श्रमण असत्य भाषा का प्रयोग न करे और सत्यासत्य यानी मिश्रभाषा का भी प्रयोग न करे, क्योंकि असत्य और मिश्रभाषा सावद्य होती है। सावद्य भाषा से कर्मबन्ध होता है। जिस श्रमण को सावद्य और अनवद्य का विवेक नहीं है, उसके लिए मौन रहना ही अच्छा है। आचारांग सूत्र में मुनि के लिए मौन का विधान है 'मुणी मोणं समादाय धुणे कम्मसरीरगं'- मुनि मौन-संयम को स्वीकार कर कर्मबन्धनों का क्षय करता है। सत्य और असत्यामृषा अर्थात् व्यवहार भाषा का प्रयोग यदि निरवद्य है तो उस भाषा का प्रयोग श्रमण कर सकता है। वस्तु के यथार्थ स्वरूप को बताने वाली भाषा सत्य होने पर भी यदि किसी के दिल में दर्द पैदा करती है तो वह भाषा श्रमण को नहीं बोलनी चाहिए। जैसे अन्धे को अन्धा कहना, काने को काना कहना । सत्य होने पर भी वह अवक्तव्य है। बोलने के पूर्व साधक को सोचना चाहिए कि वह क्या बोल रहा है? विज्ञ बोलने से पूर्व सोचता है तो मूर्ख बोलने के बाद में सोचता है। एक बार जो अपशब्द मुँह से निकल जाते हैं, उनके बाद केवल पश्चाताप हाथ लगता है। वाणी के असंयम ने ही महाभारत का युद्ध करवाया, जिसमें भारत की विशिष्ट विभूतियाँ नष्ट हो गयीं। इस प्रकार वाणी का प्रयोग आचार का प्रमुख अंग होने के कारण उस पर सूक्ष्म चिंतन इस अध्ययन में किया गया है। विवेकहीन वाणी और विवेकहीन मौन दोनों पर ही नियुक्तिकार भद्रबाहु स्वामीजी ने चिन्तन किया है। जिस श्रमण में बोलने का विवेक है, भाषासमिति का पूर्ण परिज्ञान है वह बोलता हुआ भी मौनी है और अविवेकपूर्वक जो मौन रहता है, उसका मौन वाणी तक तो सीमित रहता है पर अन्तर्मानस में विकृत भावनाएं पनप रही हों तो वह मौन सच्चा मौन नहीं है। उदाहरण के रूप में कोई श्रमण रुग्ण है, गुरुजन रात्रि में शिष्य को आवाज देते हैं। यदि शिष्य सोचे कि
८२ तिविहे परिग्गहे पं. तं. - कम्मपरिगग्हे, सरीरपरिग्गहे, बाहिर भंडमत्तपरिग्गहे । – स्थानांग ३।९५
-
८३ दशवैकालिक ८४-८६ दशवैकालिक