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श्री दशवैकालिकसूत्र भाषांतर
अध्यात्मिक साधना की परिपूर्णता के लिए श्रद्धा और ज्ञान, ये दोनों पर्याप्त नहीं हैं किन्तु उसके लिए आचरण भी आवश्यक है। बिना सम्यक् आचरण के अध्यात्मिक परिपूर्णता नहीं आती । सम्यक् आचरण के पूर्व सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान आवश्यक है । सम्यग्दर्शन का अर्थ श्रद्धा है और सम्यग्ज्ञान अर्थ-तत्त्व का साक्षात्कार है, श्रद्धा और ज्ञान की परिपूर्णता जैन दृष्टि से तेरहवें गुणस्थान में हो जाती है किन्तु सम्यक्चारित्र की पूर्णता न होने से मोक्ष प्राप्त नहीं होता। चौदहवें गुणस्थान में सम्यक्चारित्र की पूर्णता होती है तो उसी क्षण आत्मा मुक्त हो जाती है। इस प्रकार अध्यात्मिक पूर्णता की दिशा में उठाया गया कदम, अन्तिम चरण है। सम्यग्दर्शन परिकल्पना है, सम्यग्ज्ञान प्रयोग विधि है और सम्यक्चारित्र प्रयोग है। तीनों के संयोग से सत्य का पूर्ण साक्षात्कार होता है। ज्ञान का सार आचरण है और आचरण का सार निर्वाण या परमार्थ की उपलब्धि है।
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छठे अध्ययन का अपर नाम 'धर्मार्थकाम' मिलता है । मूर्धन्य मनीषियों की कल्पना है कि इस अध्ययन की चौथी गाथा में 'हंदि धमत्थकामाणं' शब्द का प्रयोग हुआ है, इस कारण इस अध्ययन का नाम धर्मार्थकाम हो गया है। यहाँ पर धर्म से अभिप्राय मोक्ष है। श्रमण मोक्ष की कामना करता है। इसलिए श्रमण का विशेषण धर्मार्थकाम है। श्रमण का आचार- गोचर अत्यधिक कठोर होता है । उस कठोर आचार का प्रतिपादन प्रस्तुत अध्ययन हुआ है, इसलिए सम्भव है इसी कारण इस अध्ययन का नाम धर्मार्थकाम रखा हो। ५
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इस अध्ययन में स्पष्ट शब्दों में लिखा है, जो भी वस्त्र, पात्र, कम्बल और रजोहरण हैं उन्हें मुनि संयम और लज्जा की रक्षा के लिए ही रखते और उनका उपयोग करते हैं। सब जीवों के त्राता ज्ञातपुत्र महावीर ने वस्त्र आदि को परिग्रह नहीं कहा है। मूर्च्छा परिग्रह है, ऐसा महर्षि ने कहा । [ श्रमणों के वस्त्रों के सम्बन्ध में दो परम्पराएं रही हैं - दिगम्बर परम्परा की दृष्टि से श्रमण वस्त्र धारण नहीं कर सकता तो श्वेताम्बर परम्परा की दृष्टि से श्रमण वस्त्र को धारण कर सकता है । ] आचारचूला में श्रमण को एक वस्त्र सहित, दो वस्त्र सहित आदि कहा है। ७६ उत्तराध्ययन में श्रमण की सचेल और अचेल इन दोनों अवस्थाओं का वर्णन है। आचारांग में जिनकल्पी श्रमणों के लिए शीतऋतु व्यतीत हो जाने पर अचेल रहने का भी विधान है। प्रशमरतिप्रकरण में आचार्य उमास्वाति ने धर्म-देहरक्षा के निमित्त अनुज्ञात पिण्ड, शैया आदि के साथ वस्त्रैषणा का भी उल्लेख किया है। ७९ उन्होंने उसी ग्रन्थ में श्रमणों के लिए कौनसी वस्तु कल्पनीय है और कौनसी वस्तु अकल्पनीय है, इस प्रश्न पर चिन्तन करते. हुए वस्त्र का उल्लेख किया है।" तत्त्वार्थभाष्य में एषणासमिति के प्रसंग में वस्त्र का उल्लेख क्रिया है ।" इस प्रकार
७५ धम्मस्स फलं मोक्खो, सासयमडलं सिवं अणावाहं ।
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तमभिपेया साहू, तम्हा धम्मत्थकाम त्ति ।। - दशवैकालिक नि. २६५ ७६ जे निग्गंथे तरुणे जुगवं बलवं अप्पायंके थिरसंघयणे से एगं वत्थ धारिज्जा नो वीर्य । ७७ एगयाऽचेलए होई, सचेले आवि एगया। एयं धम्महियं नच्चा, नाणी नो परिदेवए । ७८ उवाइक्कते खलु हेमंते गिम्हे पडिवन्ने अहापरिजुन्नाइं वत्थाइं परिद्वविज्जा, अदुवा ओमचेले अदुवा एगसाड़े अदुवा अचेले।
- आचारांग ८।८५-५३
७९ पिण्डः शय्या वस्त्रेषणादि पात्रेषणादि यच्चान्यत् ।
कल्प्याकल्प्यं सद्धर्मदेहरक्षानिमित्तोक्तम् ॥ - प्रशमरतिप्रकरण १३८ ८० किंचिच्छुद्धं कल्प्यमकल्प्यं स्यादकल्प्यमपि कल्प्यम् ।
पिण्डः शय्या वस्त्रं पात्रं वा भैषजाद्यं वा ।। - प्रशमरतिप्रकरण १४५ ८१ अन्नपानरजोहरणपात्रचीवरादीनां धर्मसाधनानामाश्रयस्य च
उद्गमोत्पादनैषणादोष वर्जनम् - एषणा समितिः। - तत्त्वार्थभाष्य ९।५
• आयार-चूला ५।२
- उत्तराध्ययन २।१३