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________________ १८ श्री दशवैकालिकसूत्र भाषांतर श्रमण को जो कुछ भी प्राप्त होता है, वह भिक्षा से ही प्राप्त होता है। इसलिए कहा है " सव्वं से जाइयं होई णत्थि किंचि अजाइयं।"६८ भिक्षु को सभी कुछ मांगने से मिलता है, उसके पास ऐसी कोई वस्तु नहीं होती जो अयाचित हो। याचना परीषह है। क्योंकि दूसरों के सामने हाथ पसारना सरल नहीं है, अहिंसा के पालक श्रमण को वैसा करना पड़ता है किन्तु उसकी भिक्षा पूर्ण निर्दोष होती है। वह भिक्षा के दोषों को टालता है। आगम में भिक्षा के निम्न दोष बताये हैं - उद्गम और उत्पादना के सोलह-सोलह और एषणा के दस, ये सभी मिलाकर बयालीस दोष होते हैं। पाँच दोष परिभोगषणा के हैं। जो दोष गृहस्थ के द्वारा लगते हैं, वे दोष उद्गम दोष कहलाते हैं, ये दोष आहार की उत्पत्ति सम्बन्धी हैं। साधु के द्वारा लगने वाले दोष उत्पादना के दोष कहलाते हैं। आहार की याचना करते समय ये दोष लगते हैं। साधु और गृहस्थ दोनों के द्वारा जो दोष लगते हैं, वे एषणा के दोष कहलाते हैं। ये दोष विधिपूर्वक आहार न लेने और विधिपूर्वक आहार न देने तथा शुद्धाशुद्ध की छानबीन न करने से उत्पन्न होते हैं। भोजन करते समय भोजन की सराहना और निन्दा आदि करने से जो दोष पैदा होते हैं वे परिभोगैषणा दोष कहलाते हैं। आगम साहित्य में ये सैंतालीस दोष यत्र-तत्र वर्णित हैं, जैसे स्थानांग के नौवें स्थान में आधाकर्म, मिश्रजात, अध्यवपूरक, पूतिकर्म, कृतकृत्य, प्रामित्य, आच्छेद्य, अनिसृष्ट और अभ्याहत ये दोष बताए हैं । ६९ निशीथसूत्र में धातृपिण्ड, दूतीपिण्ड, निमित्तपिण्ड, आजीवपिण्ड, वनीपकपिण्ड, चिकित्सापिण्ड, कोपपिण्ड, मानपिण्ड, मायापिण्ड, लोभपिण्ड, विद्यापिण्ड, मंत्रपिण्ड, चूर्णपिण्ड, योगपिण्ड और पूर्व - पश्चात् - संस्तव ये बतालाये हैं।७° आचारचूला में परिवर्तन का उल्लेख है । " भगवती में अंगार, धूम, संयोजना, प्राभृतिका और प्रमाणातिरेक दोष मिलते हैं।७२ प्रश्नव्याकरण में मूल कर्म का उल्लेख है । दशवैकालिक में उद्भिन्न, मालापहत, अध्यवतर, शङ्कित, भ्रक्षित, निक्षिप्त, पिहित, संहत्र, दायक, उन्मिश्र, अपरिणत, लिप्त और छर्दित ये दोष आए हैं।७३ उत्तराध्ययन में कारणातिक्रान्त दोष का उल्लेख है । ७४ श्रमणाचार : एक अध्ययन छठे अध्ययन में महाचारकथा का निरूपण है। तृतीय अध्ययन में क्षुल्लक आचारकथा का वर्णन था। उस अध्ययन की अपेक्षा यह अध्ययन विस्तृत होने से महाचारकथा है। तृतीय अध्ययन में अनाचारों की एक सूची दी गयी है किन्तु इस अध्ययन में विविध दृष्टियों से अनाचारों पर चिन्तन किया गया है। तृतीय अध्ययन की रचना श्रमणों को अनाचारों से बचाने के लिए संकेत सूची के रूप में की गयी है, तो इस अध्ययन में साधक के अन्तर्मानस में उद्बुद्ध हुए विविध प्रश्नों के समाधान हेतु दोषों से बचने का निर्देश है। दूसरे शब्दों में यों कह सकते हैं कि तृतीय अध्ययन में अनाचारों का सामान्य निरूपण हो तो इस अध्ययन में विशेष निरूपण है । यत्र-तत्र उत्सर्ग और अपवाद की भी चर्चा की गयी है। उत्सर्ग में जो बातें निषिद्ध कही गयी हैं, अपवाद में वे परिस्थितिवश ग्रहण भी की जाती हैं। इस प्रकार इस अध्ययन में सहेतुक निरूपण हुआ है। ६८ उत्तराध्ययन २।२८ ६९ स्थानांग ९।६२ ७० निशीथ, उद्देशक १२ ७१ आचारचूला १।२१ ७२ भगवती ७।१ ७३ दशवैकालिक, अध्ययन ५ ७४ उत्तराध्ययन २६ । ३३
SR No.005784
Book TitleDashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages402
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & agam_dashvaikalik
File Size9 MB
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