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________________ श्री दशवकालिकसूत्र भाषांतर पदार्थ हो या विजातीय, उस ठोस पदार्थ का एक स्थान पर इकट्ठा हो जाना पिण्ड कहलाता है। पिण्ड शब्द तरल और ठोस दोनों के लिए व्यवहत हुआ है। आचारांग में पानी की एषणा के लिए पिण्डैषणा शब्द का प्रयोग हुआ है।६० संक्षेप में यदि कहा जाय तो अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य, इन सभी की एषणा के लिए पिण्डैषणा शब्द का व्यवहार हुआ है।६१ दोषरहित शुद्ध व प्रासुक आहार आदि की एषणा करने का नाम पिण्डैषणा है। पिण्डैषणा का विवेचन आचारचूला में विस्तार से हुआ है। उसी का संक्षेप में निरूपण इस अध्ययन में है। स्थानांग सूत्र में पिण्डैषणा के सात प्रकार बताए हैं - १. संसृष्टा --- देयं वस्तु से लिप्त हाथ या कड़छी आदि से देने पर भिक्षा ग्रहण करना, २. असंसृष्ट --- देय वस्तु से अलिप्त हाथ या कड़छी आदि से भिक्षा देने पर ग्रहण करना, ३, उद्धृता - - अपने प्रयोजन के लिए रांधने के पात्र से दूसरे पात्र में निकाला हुआ आहार ग्रहण करना, ४. अल्पलेपा --- अल्पलेप वाली यानी चना, बादाम, पिस्ते, द्राक्षा आदि रूखी वस्तुएं लेना, ५. अवगृहीता --- खाने के लिए थाली में परोसा हुआ आहार लेना, ६. प्रगृहीता --- परोसने के लिए कड़छी या चम्मच आदि से निकाला हुआ आहार लेना या खाने वाले व्यक्ति के द्वारा अपने हाथ से कवल उठाया गया हो पर खाया न गया हो, उसे ग्रहण करना, ७. उज्झितधर्मा - जो भोजन अमनोज्ञ होने के कारण परित्याग करने योग्य है, उसे लेना।६२ भिक्षा : ग्रहणविधि - प्रस्तत अध्ययन में बताया है कि श्रमण आहार के लिए जाए तो गहस्थ के घर में प्रवेश करके शुद्ध आहार की गवेषणा करे। वह यह जानने का प्रयास करे कि यह आहार शुद्ध और निर्दोष है या नहीं?६३ इस आहार को लेने से पश्चात कर्म आदि दोष तो नहीं लगेंगे? यदि आहार अतिथि आदि के लिए बनाया गया हो तो उसे लेने पर गृहस्थ को दोबारा तैयार करना पड़ेगा या गृहस्थ को ऐसा अनुभव होगा कि मेहमान के लिए भोजन बनाया और मुनि बीच में ही आ टपके। उनके मन में नफरत की भावना हो सकती है, अतः वह आहार भी : ग्रहण नहीं करना चाहिए। किसी गर्भवती महिला के लिए बनाया गया हो - वो खा रही हो और उसको अन्तराय लगे वह आहार भी श्रमण ग्रहण न करे।६४ गरीब और भिखारियों के लिए तैयार किया हुआ आहार भिक्षु के लिए अकल्पनीय है।६५ दो साझीदारों का आहार हो और दोनों की पूर्ण सहमति न हो तो वह आहार.भी भिक्षु ग्रहण न करे।६६ इस तरह भिक्षु प्राप्त आहार की आगम के अनुसार एषणा करे। वह भिक्षा न मिलने पर निराश नहीं होता। वह यह नहीं सोचता कि यह कैसा गांव है,जहाँ भिक्षा भी उपलब्ध नहीं हो रही है। प्रत्युत वह सोचता है कि अच्छा हुआ, आज मुझे तपस्या का सुनहरा अवसर अनायास प्राप्त हो गया। भगवान् महावीर ने कहा है कि श्रमण को ऐसी भिक्षा लेनी चाहिए जो नवकोटि परिशुद्ध हो अर्थात् पूर्ण रूप से अहिंसक हो। भिक्षु भोजन के लिए न स्वयं जीवहिंसा करे और न करवाए तथा न हिंसा करते हुए का अनुमोदन करे। न वह स्वयं अन्न पकाए, न पकवाए और न पकाते हुए का अनुमोदन करे तथा न स्वयं मोल ले, न लिवाए और न लेने वाले का अनुमोदन करे।६७ ६० आचारांग ६१ पिण्डनियुक्ति, गाथा ६ ६२ (क) आयारचूला १।१४१-१४७ (ब) स्थानांग ७।५४५ वृत्ति, पत्र ३८६ (ग) प्रवचनसारोद्धार गाथा ७३९-७४२ ६३ दशवकालिक ५।१।२७; ५।१५६ ६४ वही ५।१।२५ ६५ वही ५।१।३९ ६६ वही ५।१।४७ ६७ णवकोडि परिसुद्धेभिक्खे पण्णत्ते......! -स्थानांग ९।३
SR No.005784
Book TitleDashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages402
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & agam_dashvaikalik
File Size9 MB
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