SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री दशवैकालिकसूत्र भाषांतर भोजन, नृत्यगीत, उच्चशय्यावर्जन आदि का महाव्रत के रूप में उल्लेख नहीं है पर वे श्रमणों के लिए वर्ज्य हैं। दस भिक्षुशील और महाव्रतों में समन्वय की दृष्टि से देखा जाय तो बहुत कुछ समानता है, तथापि जैन श्रमणों की आचारसंहिता में और बौद्ध परम्परा की आचारसंहिता में अन्तर है। बौद्ध परम्परा में भी दस भिक्षुशीलों के लिए मन-वचन-काया तथा कृत, कारित, अनुमोदित की नव कोटियों का विधान है पर वहाँ औद्देशिक हिंसा से बचने का विधान नहीं है। जैन श्रमण के लिए यह विधान है कि यदि कोई गृहस्थ साधु के निमित्त हिंसा करता है और यदि श्रमण को यह ज्ञात हो जाय तो वह आहार आदि ग्रहण नहीं करता। जैन श्रमण के निमित्त भिक्षा तैयार की हुई हो या आमंत्रण दिया गया हो तो वह किसी भी प्रकार का आमंत्रण स्वीकार नहीं करता । बुद्ध, अपने लिए प्राणीवध कर जो मांस तैयार किया हो तो उसे निषिद्ध मानते थे पर सामान्य भोजन के सम्बन्ध में, चाहे वह भोजन ૧૬ शिक हो, वे स्वीकार करते थे । वे भोजन आदि के लिए दिया गया आमंत्रण भी स्वीकार करते थे । इसका मूल कारण है अग्नि, पानी आदि में बौद्ध परम्परा ने जैन परम्परा की तरह जीव नहीं माने हैं। इसलिए सामान्य भोजन देशिक दृष्टि से होने वाली हिंसा की ओर उनका ध्यान ही नहीं गया। बौद्ध परम्परा में दस शीलों का विधान होने पर भी उन शीलों के पालन में बौद्ध भिक्षु और भिक्षुणियां उतनी सजग नहीं रही जितनी जैन परम्परा के श्रमण और श्रमणियां सजग रही। आज भी जैन श्रमण-श्रमणियों के द्वारा महाव्रतों का पालन जागरूकता के साथ किया जाता है जबकि बौद्ध और वैदिक परम्परा उनके प्रति बहुत ही उपेक्षाशील हो गयी है। नियमों के पालन की शिथिलता ने ही तथागत बुद्ध के बाद बौद्ध भिक्षु संघ में विकृत्तियां पैदा कर दीं। [वैसी ही वर्तमान में जैन श्रमणश्रमणियों में विकृतियाँ आ गयी हैं। सं.] महाव्रतों के वर्णन के पश्चात् प्रस्तुत अध्ययन में विवेकयुक्त प्रवृत्ति पर बल दिया है। जिस कार्य में विवेक का आलोक जगमगा रहा है, वह कार्य कर्मबन्धन का कारण नहीं और जिस कार्य में विवेक का अभाव है, उस कार्य से कर्मबन्धन होता है। जैसे प्राचीन युग में योद्धागण रणक्षेत्र में जब जाते थे तब शरीर पर कवच धारण कर लेते थे । कवच धारण करने से शरीर पर तीक्ष्ण बाणों का कोई असर नहीं होता, कवच से टकाराकर बाण नीचे गिर जाते, वैसे ही विवेक के कवच को धारणकर साधक जीवन के क्षेत्र में प्रवृत्ति करता है। उस पर कर्मबन्धन के बाण नहीं लगते। विवेकी साधक सभी जीवों के प्रति समभाव रखता है, उसमें 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की भव्य भावना अंगड़ाइयाँ लेती है। इसलिए वह किसी भी प्राणी को किसी भी प्रकार से पीड़ा नहीं पहुँचाता । इस अध्ययन में इस बात पर भी बल दिया गया है कि पहले ज्ञान है, उसके पश्चात् चारित्र है। ज्ञान के अभाव में चारित्र सम्यक् नहीं होता। पहले जीवों का ज्ञान होना चाहिए, जिसे षड्जीवनिकाय का परिज्ञान है, वही जीवों के प्रति दया रख सकेगा। जिसे यह परिज्ञान ही नहीं है. • जीव क्या है, अजीव क्या है, वह जीवों की रक्षा किस प्रकार कर सकेगा ? इसलिए मुक्ति का आरोहक्रम जानने के लिए इस अध्ययन में बहुत ही उपयोगी सामग्री दी गयी है। वावाभिगम, आचार, धर्मप्रज्ञप्ति, चारित्रधर्म, चरण और धर्म ये छहों षड्जीवनिकाय के पर्यायवाची हैं । ५८ नियुक्तिकार श्री भद्रबाहु स्वामी के अभिमतानुसार यह अध्ययन आत्मप्रबादपूर्व से उद्धृत है । ५९ एषणा : विश्लेषण --- पांचवें अध्ययन का नाम पिण्डेषणा है। पिण्ड शब्द 'पिंडी संघाते' धातु से निर्मित है। चाहे सजातीय ५८ जीवाजीवाभिगमो, आयरो चेव धम्मपन्नत्ती । तत्तो चरित्तधम्मो, चरणे धम्मे अ एगट्ठा ।। ५९ आयप्पवायपुव्वा निव्वूढा होइ धम्मपन्नत्ती ।। - दशवैकालिक नियुक्ति ४।२३३ • दशवैकिालिक नि० १११६
SR No.005784
Book TitleDashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages402
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & agam_dashvaikalik
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy