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श्री दशवकालिकसूत्र भाषांतर
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इस समय बोले तो सेवा के लिए उठना पड़ेगा, अतः मौन रख लूं। इस प्रकार सोचकर वह उत्तर नहीं देता है तो वह मौन सही मौन नहीं है। अतः साधक को हर दृष्टि से चिन्तनपूर्वक बोलना चाहिए, उसकी वाणी पर विवेक का अंकुश हो। धम्मपद में कहा है कि जो भिक्षु वाणी में संयत है, मितभाषी है तथा विनीत है वही धर्म और अर्थ को प्रकाशित करता है, उसका भाषण मधुर होता है। सुत्तनिपात में उल्लेख है कि भिक्षु को अविवेकपूर्ण वचन नहीं बोलना चाहिए। वह विवेकपूर्ण वचन का ही प्रयोग करे। आचार्य मनु ने लिखा है मुनि को सदैव सत्य ही बोलना चाहिए।“ महाभारत शान्ति पर्व में वचन विवेक पर विस्तार से प्रकाश डाला है। पस्तुत अध्ययन सत्यप्रवाद पूर्व से उद्धृत है। इन्द्रियसंयम : एक चिन्तन
आठवें अध्ययन का नाम आचारप्रणिधि है। आचार एक विराट् निधि है। जिस साधक को यह अपूर्व निधि प्राप्त हो जाती है, उसके जीवन का कायाकल्प हो जाता है। उसका प्रत्येक व्यवहार अन्य साधकों की अपेक्षा पृथक् हो जाता है उसका चलना, बैठना, उठना सभी विवेकयुक्त होता है। वह इन्द्रियरूपी अश्वों को सन्मार्ग की.
ओर ले जाता है। उसकी मन-वचन-कर्म और इन्द्रियाँ उच्छंखल नहीं होती। वह शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श में समभाव धारण करता है। राग-द्वेष के वशीभूत होकर कर्मबन्धन नहीं करता है - इन्द्रियों पर वह नियन्त्रण करता है। इन्द्रिय संयम श्रमण-जीवन का अनिवार्य कर्त्तव्य है। यदि श्रमण इन्द्रियों पर संयम नहीं रखेगा तो श्रमणजीवन में प्रगति नहीं कर सकेगा। प्रायः इन्द्रियसुखों की प्राप्ति के लिए ही व्यक्ति पतित आचरण करता है। इन्द्रियसंयम का अर्थ है - इन्द्रियों को अपने विषयों के ग्रहण से रोकना एवं गृहीत विषय में राग-द्वेष न करना। हमारे अन्तर्गानस में इन्द्रियों के विषयों के प्रति जो आकर्षण उत्पन्न होता है उनका नियमन किया जाए। श्रमण अपनी पाँचों इन्द्रियों को संयम में रखे और जहाँ भी संयममार्ग से पतन की संभावना हो वहाँ उन विषयों पर संयम करे। जैसे संकट समुपस्थित होने पर कछुआ अपने अंगों को समाहरण कर लेता है वैसे ही श्रमण इन्द्रियों की प्रवत्तियों का समाहरण करे।९२ बौद्ध श्रमणों के लिए भी इन्द्रियसंयम आवश्यक माना है। धम्मपद में थागत बुद्ध ने कहा - नेत्रों का संयम उत्तम है, कानों का संयम उत्तम है, घ्राण और रसना का संयम भी उत्तम है,शरीर, वचन,
और मन का संयम भी उत्तम है, जो भिक्षु सर्वत्र सभी इन्द्रियों का संयम रखता है वह दुःखों से मुक्त हो जाता है।९३ स्थितप्रज्ञ का लक्षण बतलाते हुए श्री कृष्ण ने वीर अर्जुन को कहा - जिसकी इन्द्रियाँ वशीभूत हैं वही स्थितप्रज्ञ है। इस प्रकार भारतीय परम्परा में चाहे श्रमण हो, चाहे संन्यासी हो उसके लिए इन्द्रियसंयम आवश्यक है।५ कषाय : एक विश्लेषण
श्रमण को इन्द्रियनिग्रह के साथ कषायनिग्रह भी आवश्यक है। कषाय शब्द क्रोध, मान, माया, लोभ का
८७ धम्मपद, ३६३ ८८ मनुस्मृति, ६।४६ ८९ महाभारत, शान्तिपर्व, १०९।१५-१९ ९० सच्चप्पवायपुव्वा निज्जूढा होइ वक्कसुद्धी उ। - दशवकालिक नियुक्ति, १७ ९१ आचारांग, २।१५।१।१८० ९२ सूत्रकृतांग, १।८।१।१६ ९३ धम्मपद, ३६०-३६१ ९४ श्रीमद्भगवद्गीता, २०६१ ९५ वही, २५९; ६४