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શ્રીસિદ્ધહેમચન્દ્રશબ્દાનુશાસન ભાગ-૧
व्याकरणशास्त्र की रचना की । आचार्य भगवन्त ने अपनी अलौकिक प्रतिभा से क्षरित होती हुई पुरातन परम्परा को बहुत ही कुशलता से अपने व्याकरणशास्त्र में सुनिबद्ध कर दी है। अपने समय में उपलब्ध सभी व्याकरणों, उत्तम व्याकरणग्रन्थों का सूक्ष्म मनन, चिन्तन व अवगाहन कर सभी का सार संगृहीत करते हुए उन्होंने मधुकोषरूप अद्भुत व्याकरण की रचना की थी । इस व्याकरण के ऊपर 'बृहद्वृत्ति' व 'बृहन्यास' बनाकर अपने विलक्षण व्याकरण - प्रसाद को अभेद्य दुर्ग रूप में सुदृढ़ कर दिया। इतना ही नहीं व्याकरण द्वारा साधित सभी उदाहरणों व प्रत्युदाहरणों को स्वरचित ऐतिहासिक द्व्याश्रयकाव्य में प्रयुक्त कर इतिहास में एक अभूतपूर्व निदर्शन प्रस्तुत किया है, जिसकी तुलना अन्यत्र नहीं मिलती है। आचार्य भगवन्त के इस विराट कार्य को देखकर महाभारतकार कृष्णद्वैपायन व्यास की यह उक्ति सहसा स्मृतिपथ पर आ जाती है
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सर्वार्थानां व्याकरणाद् वैयाकरण उच्यते । प्रत्यक्षदर्शी लोकस्य सर्वदर्शी भवेन्नरः ॥
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( महाभारत,
उद्योगपर्व - ४३.३६ ) अर्थात् सभी अर्थों का व्याकरण (विवेचनपूर्वक वर्णन) करने से व्यक्ति वैयाकरण कहलाता है। इसे निर्वचन, प्रकृति और प्रत्यय का पृथक् अर्थपरक स्पष्टीकरण करना होता है । यह सब करने वाला सम्पूर्ण लोक का प्रत्यक्षदर्शी होता है । अत एव सर्वदर्शी हो जाता है। इसी 'सर्वदर्शी' पद का भाव आचार्य भगवन्त के विशेषण - 'कलिकालसर्वज्ञ' में समाहित है। इस प्रकार उनका यह विशेषण अन्वर्थ व सर्वथा सटीक रूप में घटित होता है ।
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शताब्दियों से जैन परम्परा में आचार्य भगवन्त के इस व्याकरण का अभ्यासक्रम चलता आ रहा है । विशेष रूप से जैन मुनियों की अध्ययनाध्यापन परम्परा में यह सुप्रचलित है । सिद्धहेमशब्दानुशासन की बृहद्वृत्ति के उपर बृहन्यास की रचना कर आचार्य भगवन्त ने व्याकरणग्रंथ के अभ्यासुओं के ऊपर अपार उपकार किया है । उन्होंने अपने काल में उपलब्ध दुर्लभ सामग्री व शास्त्रीय तत्त्वों को इसमें बडी कुशलता से गुम्फित कर सुरक्षित कर दिया है। आचार्य भगवन्त के इस परम उपकार के लिए संस्कृत - जगत् सदा-सदा के लिए उनका अतीव कृतज्ञ रहेगा ।
वर्तमान काल में संस्कृत - जगत् में पाणिनीय व्याकरण के अध्ययनाध्यापन का अधिक प्रचलन है। पाणिनीय व्याकरण के काशिकावृत्ति आदि व्याख्यान -ग्रन्थों में अनेक स्थलों पर वृत्ति व उदाहरणों के पाठ विपर्यस्त व दोषग्रस्त हो गए हैं, परन्तु वे स्थल सिद्धहेमशब्दानुशासन में सर्वथा शुद्ध व निर्भ्रान्त रूप में सुरक्षित हैं । इससे पाणिनीय परम्परा के ग्रन्थों के पाठशोधन व अर्थ - निर्धारण में बडी सहायता मिलती है। हमने स्वयं ऐसे अनेक स्थल चिह्नित किये हैं। सूत्रोदाहरणों के प्रयोग को