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સિદ્ધહેમશબ્દાનુશાસન વ બૃહશ્વાસ કી ઉપાદેયતા
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मोक्षमार्ग का साधक है । इसिलिए अध्यात्मशास्त्रों या मोक्षशास्त्रों का अनुशीलन करने वाले भी पहले "व्याकरणशास्त्र का ही अभ्यास करते हैं । भास्कराचार्य ने कहा भी है
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तस्मात् प्रथममेतदधीत्य विद्वान् शास्त्रान्तरस्य भवति श्रवणेऽधिकारी ।
(सिद्धान्तशिरोमणिग्रन्थारम्भे )
अर्थात् व्याकरण शास्त्र का अध्ययन करने पर ही व्यक्ति अन्य शास्त्र के श्रवण का अधिकारी बनता है । यदि व्याकरण के बिना ही अन्य शास्त्रों का अध्ययन किया जाए तो वह सन्देहपूर्ण या अनर्थपूर्ण हो सकता है । कहा भी है -
अव्याकरणमधीतं भिन्नद्रोण्या तरंगिणीतरणम् ।
भेषजमपथ्यसहितं त्रयमिदमकृतं वरं न कृतम्॥
अर्थात् बिना व्याकरण के शास्त्रान्तर का अध्ययन करना, टूटी नौका से नदी पार करने का प्रयास तथा अपथ्य के साथ औषध सेवन, इन तीन कार्यों को करने से तो न करना ही अच्छा है । अतः किसी भी शास्त्र के निर्भ्रान्त व स्पष्ट बोध के लिए व्याकरण- ज्ञान परमावश्यक है । इसके बिना अध्येतव्य शास्त्र का अध्ययन सफल नहीं होता, प्रत्युत अनर्थपूर्ण ही हो जाता है । जैसा कि कहा है -
अंगीकृतं कोटिमितं च शास्त्रं नांगीकृतं व्याकरणं च येन ।
न शोभते तस्य मुखारविन्दे सिन्दूरबिन्दुर्विधवाललाटे ॥
भले ही किसी ने कोटि श्लोक परिमाण वाला शास्त्र कण्ठस्थ कर लिया हो, पर यदि व्याकरण नहीं पढा तो वह शास्त्र उसके मुख में उसी प्रकार शोभित नहीं होता, जिस प्रकार विधवा के ललाट पर सिन्दूरबिन्दु | इस प्रकार तत्त्वबोध के लिए व्याकरणज्ञान नितराम् अनिवार्य व अतीव महत्त्वपूर्ण
माना जाता
है
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भारतवर्ष में प्राचीन काल से ही व्याकरणशास्त्र की रचना - परम्परा रही है । व्याकरण के प्राचीन रचनाकारों में ये मुख्य माने जाते हैं -
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इन्द्रश्चन्द्रः काशकृत्स्त्रापिशली शाकटायनः ।
पाणिन्यमरजैनेन्द्राः जयन्त्यष्टादिशाब्दिकाः ॥
(बोपदेवकृत-कविकल्पद्रुमारम्भे )
इसी परम्परा में कलिकालसर्वज्ञ अपारविद्यार्णव- कर्णधार आचार्य भगवन्त श्रीहेमचन्द्रसूरीश्वर महाराज ने 'सिद्धहेमशब्दानुशासन' नामक एक सर्वांगपूर्ण, अतीव उत्कृष्ट, सुनिबद्ध एवं विशाल