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________________ श्री स्थानाङ्ग सूत्र सानुवाद भाग २ परिशिष्ट अध्याय भी परिकर्म व्यवहार है जिसमें स्पष्ट परिकर्मों की चर्चा है । यद्यपि ब्रह्मगुप्त (६२८ ई०) ने २० परिकर्मों का उल्लेख किया है। तथापि भारतीय गणितज्ञों ने मौलिक परिकर्म ८ ही माने हैं जो कि ब्रह्मगुप्त के निम्नांकित २० परिकर्मों में से प्रथम ८ हैं। १. संकलन (जोड़) २. व्यवकलन (घटाना) ९-१३. पाँच जातियाँ (भिन्न संबंधी) १४. त्रैराशिक ३. गुणन १५. व्यस्त त्रैराशिक ४. भाग १६. पंच राशिक ५. वर्ग १७. सप्त राशिक ६. वर्गमूल १८. नव राशिक ७. घन १९. एकादश राशिक ८. घनमूल २०. भाण्डप्रतिभाण्ड वस्तुतः मूलपरिकर्म तो संकलन एवं व्यवकलन ही है। अन्य तो उनसे विकसित किये जा सकते हैं। मिस्र; यूनान एवं अरबवासियों ने द्विगुणीकरण एवं अर्द्धकरण को भी मौलिक परिकर्म माना है; किन्तु भारतवासियों ने नहीं माना है, क्योंकि दाशमिक स्थान मान पद्धति से भिज्ञ लोगों के लिए इन परिकर्मों का कोई महत्त्व नहीं है। अभिधान राजेन्द्र कोश में चूर्णि को उद्धृत करते हुए लिखा गया है कि परिकर्म गणित की वह मूलभूत क्रिया है जो कि विद्यार्थी को विज्ञान के शेष एवं वास्तविक भाग में प्रवेश के योग्य बनाती है। इनकी संख्या १६ है । ३ भारतीय गणितज्ञों के लिए ये परिकर्म इतने सरल एवं सहज थे कि उच्चस्तरीय ग्रन्थों में इनका कोई विशेष विवरण नहीं मिलता। इसी तथ्य के आधार पर दत्त महोदय ने लिखा है कि इन साधारण परिकर्मों में से अधिकांश का उल्लेख सिद्धांत ग्रन्थों में नहीं मिलता । अग्रवाल ने लिखा है कि- 'इससे यह प्रतीत होता है कि गणित की मूल प्रक्रियायें चार ही मानी गयी हैं- संकलन, व्यवकलन, गणन एवं भजन। इन चारों क्रियाओं के आधार पर ही परिकर्माष्टक का गणित विकसित हुआ है। 4 उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है परिकम्म का अर्थ गणित की मूलभूत प्रक्रियायें ही हैं एवं परिकम्म शब्द का आशय अंकगणित के परिकर्म से ही है। २. ववहारो (व्यवहार) : इस शब्द की व्याख्या अभयदेवसूरि ने श्रेणी व्यवहार आदि पाटीगणित के रूप में तथा दत्त महोदय ने अंकगणित के व्यवहार रूप में की है। ब्रह्मगुप्त ने व्यवहार के ८ प्रकार बताये हैं। १. मिश्रक व्यवहार, २. श्रेणी व्यवहार, ३. क्षेत्र व्यवहार, ४. खात व्यवहार, ५. चिति व्यवहार, ६. क्रकचिका व्यवहार, ७. राशि व्यवहार, ८. छाया व्यवहार 1. आपने अत्यंत सरल होने के कारण संकलन एवं व्यवकलन की विधियों की चर्चा नहीं की है। 2. देखें सं०-४, पृ० ११८ । 3. देखें सं०-३, पृ० २४ । 4. देखें सं०-१, पृ० ३३ | 416
SR No.005768
Book TitleSthanang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages484
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & agam_sthanang
File Size12 MB
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