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परिशिष्ट
श्री स्थानाङ्ग सूत्र सानुवाद भाग २ महत्त्वपूर्ण, वर्तमान में उपलब्ध ग्रन्थ उस समय तक अप्रकाशित एवं अज्ञात थे तथापि उनकी व्याख्या अभयदेवसूरि की व्याख्या की अपेक्षा तर्कसंगत प्रतीत होती है। उन्होंने उपर्युक्त दस शब्दों की व्याख्या निम्न प्रकार दी।
१. अंक गणित के परिकर्म [Fundamental Operation]
२. अंक गणित के व्यवहार [Subject to Treatment]
३. रेखागणित [Geometry]
४. राशियों का आयतन आदि निकालना [Mensuration of Solid bodies]
५. भिन्न [Fraction]
६. सरल समीकरण [Simple Equation]
७. वर्ग समीकरण [Quadratic Equation ]
८. घन समीकरण [Cubic Equation]
९. चतुर्थ घात समीकरण [Biquadratic Equation]
१०. विकल्प गणित या क्रमचय - संचय [Combination & Permutation]
दत्त द्वारा विषय की व्यापक रूप से समीक्षा किये जाने के उपरांत सर्वप्रथम कापडिया [१९३७ ई०] ने इस . विषय का स्पर्श किया किन्तु निर्णय हेतु अतिरिक्त सामग्री प्राचीन जैन गणितीय ग्रन्थों आदि के अभाव में आपने अपना निर्णय सुरक्षित रखा। आपने लिखा कि :
It is extremely difficult to reconcile these two views especially when we have at present neither any acess to a commentary prior to the one mentioned above nor to any mathematical works of Jaina authorship which is earlier to Ganita Sara Samgraha. So under these circumstances I shall be excused if I reserve this matter for further research.1
आयंगर [१९६९ ई०]± उपाध्याय [१९७१ ई०] 3 अग्रवाल [१९७२ ई०]4 जैन [लक्ष्मीचंद] [१९८० ई०] 5 ने अपनी कृतियों/लेखों में इस विषय का ऊहापोह किया है। स्थानांगसूत्र के विगत २ - ३ दशकों में प्रकाशित अनेक सटीक संस्करणों में अभयदेवसूरि की ही मान्यता का पोषण किया गया है। जैन विश्व भारती, लाडनूं से प्रकाशित संस्करण में ३ पृष्ठीय विस्तृत परिशिष्ट में इस विषय की विवेचना की गई है किन्तु वह भी परंपरानुरूप ही है। हम यहाँ क्रमिक रूप से परिकर्म, व्यवहार आदि शब्दों की अद्यावधि प्रकाशित व्याख्याओं की समीक्षा कर निष्कर्ष निकालने का प्रयास करेंगे।
परिकम्म [परिकर्म]
परिक्रियते अस्मिन् इति परिकर्म। अर्थात् जिसमें गणित की मूल क्रिया सम्पन्न की जाये उसे परिकर्म कहते हैं। " परिकर्म शब्द जैन वाङ्मय के लिये नया नहीं है । अंग साहित्य के अन्तर्गत दृष्टिवाद अंग [ १२वां अंग] का एक भेद परिकर्म है। आ० कुन्दकुन्द [ द्वितीय - तृतीय शती ई०] ने षट्खण्डागम के प्रथम तीन अध्यायों पर १२००० श्लोक प्रमाण परिकर्म नामक टीका लिखी थी। वीरसेन (८२६ ई०) कृत धवला में 'परियम्म सुत्तं' नामक ग्रन्थ
गणित ग्रन्थ के रूप में अनेकशः उल्लेख हुआ है। महावीराचार्य (८५० ई०) कृत गणितसारसंग्रह का एक
1. देखें सं०-१०, पृ० १३ । 2. देखें सं० - १३, पृ० २५-२७ । 3. देखें सं० - ११, पृ० २६ । 4. देखें सं०-१, पृ० ३०-५७ । 5. देखें सं०-८, पृ० ३७ - ४१, ४२ । 6. देखें सं० - १, पृ० ३२ ।
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