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________________ श्री स्थानाङ्ग सूत्र सानुवाद भाग २ परिशिष्ट अत्र पाठकैः क्षीरनीरविवेकन्यायेन स्वधिया विचार्यैव तत्त्वं ग्राह्यं त्याज्यं वा। किञ्च, लेखकैरशुद्धान् पाठानवलम्ब्य यच्चर्चितं तदस्मान्निबन्धादपसारितमस्माभिरित्यवश्यं विज्ञेयम्-सम्पादकः श्री जम्बूविजयः।] "जैन आगमों में निहित गणितीय अध्ययन के विषय" -अनुपम जैन' एवं सुरेशचन्द्र अग्रवाल जैन परम्परा में तीर्थंकरों के उपदेशों एवं उन उपदेशों की उनके प्रधान शिष्यों [गणधरों] द्वारा की गयी व्याख्या को समाहित करने वाले समस्त शास्त्र आगम की संज्ञा से अभिहित किये जाते हैं। वर्तमान में उपलब्ध समस्त आगमों की रचना ५वीं शती ई० पू० से ५वीं शती ई० के मध्य जैन परम्परा के वरिष्ठ आचार्यों द्वारा भगवान् महावीर के उपदेशों के आधार पर की गयी है। जैनधर्म की दोनों धाराएँ [दिगम्बर एवं श्वेताम्बर] आगमों की नामावली के सन्दर्भ में एकमत नहीं हैं। जहाँ दिगम्बर परम्परा षड्खंडागम, कषायप्राभृति एवं आचार्य कुन्दकुन्द के साहित्य को आगम के रूप में मान्यता देती है, वहीं श्वेताम्बर परम्परा देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण [४५३४५६ ई०] की अध्यक्षता में सम्पन्न वल्लभी वाचना में स्खलित एवं विलुप्त होते हुए परम्परागत ज्ञान को आधार । बनाकर लिखे गये अंग, उपांग साहित्य को आगम की मान्यता देती है। ये अंग, उपांग अर्द्धमागधी प्राकृत भाषा में निबद्ध है। यहाँ पर हम इन्ही आगमों को आगम के रूप में चर्चा करेंगे। जैन आगम ग्रन्थों में स्थानांग [ठाणं] का महत्त्वपूर्ण स्थान है। अंग साहित्य में यह तृतीय स्थान पर आता है। मूल रूप से लगभग ३०० ई०पू० में सृजित एवं ५वीं शती ई० में अपने वर्तमान रूप में संकलित इस अंग के दसवें अध्याय में निहित ६४वी गाथा गणितज्ञों की दष्टि से महत्त्वपर्ण है। ७४७ दसविधे संखाणे पन्नत्ते-परिकम्म ववहारो एज्जू वासी कलासवन्ने य। जावंताव ति वग्गो घणो त तह वग्गवग्गो वि ॥१६४।। कप्पो त। .. इस गाथा से हमें गणित के अन्तर्गत अध्ययन के विषयों की जानकारी मिलती है। तीर्थंकर महावीर को संख्याज्ञान का विशेषज्ञ माना गया है। एवं आगम ग्रन्थ उनके परंपरागत ज्ञान के संकलन मात्र हैं। स्थानांग की इस गाथा की वर्तमान में उपलब्ध सर्वप्रथम व्याख्या अभयदेव सूरि -[१०वीं शती ई०] द्वारा की गयी। स्थानांग की टीका में उपर्युक्त गाथा में आये विषयों का अर्थ स्पष्ट करते हुये उन्होंने निर्धारित किया कि १. परिकम्मं = संकलन आदि। २. ववहारो = श्रेणी व्यवहार या पाटी गणित। ३. रज्जु = समतल ज्यामिति। ४. रासी = अन्नों की ढेरी। ५. कलासवण्णे = प्राकृतिक संख्याओं का गुणन या संकलन।. ६. जावंताव = यावत् तावत्। ७. वग्गो = वर्ग। ८. घणो = घन। ९. वग्गवग्गो = चतुर्थघात। १०. कप्पो = क्रकचिका व्यवहार। दत्त' [१९२९] ने लगभग ९०० वर्षों के उपरान्त उपर्युक्त व्याख्या को अपूर्ण एवं एकांगी घोषित करते हुए अपनी व्याख्या प्रस्तुत की। दत्त के समय में भी जैन गणित का ज्ञान अत्यन्त प्रारंभिक था एवं गणितीय दृष्टि से 1. व्याख्याता (गणित) शासकीय महाविद्यालय, थ्यावरा (राजगढ) म.प्र. ४६५६७४ 2. रीडर, गणित विभाग, उच्चशिक्षा संस्थान, मेरठ, वि.वि. मेरठ (उ.प्र.) 3. गणितसारसंग्रह-मंगलाचरण १/१, पृष्ठ १ । 4. देखें सं० । ३, पृष्ठ ११९-१२२ । 414
SR No.005768
Book TitleSthanang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages484
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & agam_sthanang
File Size12 MB
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