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परिशिष्ट
श्री स्थानाङ्ग सूत्र सानुवाद भाग २ 'यावत् तावत्'-कहते हैं।
जैसे - कल्पना करो कि इष्ट १६ है, इसको इष्ट १० से गुणा किया - १६ x १० = १६०। इसमें पुनः इष्ट १० मिलाया ( १६०+१०= १७०)। इसको गच्छ से गुणा किया (१७० x १६ = २७२०) इसमें इष्ट की दुगुनी संख्या से भाग दिया २७२० / २० = १३६, यह गच्छ का योगफल है। इस वर्ग को पाटीगणित भी कहा जाता है।
७. वर्ग - वर्ग शब्द का शाब्दिक अर्थ है 'पंक्ति' अथवा 'समुदाय'। परन्तु गणित में इसका अर्थ 'वर्गघात' तथा 'वर्गक्षेत्र' अथवा उसका क्षेत्रफल होता है। पूर्ववर्ती आचार्यों ने इसकी व्यापक परिभाषा करते हुए लिखा है कि 'समचतुरस्र' (अर्थात् वर्गाकार क्षेत्र) और उसका क्षेत्रफल वर्ग कहलाता है। दो समान संख्याओं का गुणन भी वर्ग है। परन्तु परवर्ती लेखकों ने इसके अर्थ को सीमित करते हुए लिखा है-'दो समान संख्याओं का गुणनफल वर्ग है।'2 वर्ग के अर्थ में कृति.शब्द का प्रयोग भी मिलता है, परन्तु बहुत कम। इसे समद्विराशिघात भी कहा जाता है। भिन्न-भिन्न विद्वानों ने इसकी भिन्न-भिन्न विधियों का निरूपण किया है। ... ८. घन - इसका प्रयोग ज्यामितीय और गणितीय - दोनों अर्थों में अर्थात् ठोस घन तथा तीन समान संख्याओं के गुणनफल को सूचित करने में किया गया है। आर्यभट्ट प्रथम का मत है-तीन समान संख्याओं का गुणनफल तथा बारह बराबर कोणों (और भुजाओं) वाला ठोस भी घन है। श्रीधर, महावीर और भाष्कर द्वितीय' का कथन है कि तीन समान संख्याओं का गुणनफल घन है। घन के अर्थ में 'वृन्द' शब्द का भी यत्रकुत्र प्रयोग मिलता है। इसे 'समत्रिराशिघात' भी कहा जाता है। घन निकालने की विधियों में भी भिन्नता है। ___९. वर्ग-वर्ग - वर्ग को वर्ग से. गुणा करना। इसे 'समचतुर्घात' भी कहते हैं। पहले मूल संख्या को उसी संख्या से गुणा करना। फिर गुणनफल की संख्या को गुणनफल की संख्या से गुणा करना। जो संख्या आती है उसे वर्ग-वर्ग फल कहते हैं। जैसे - ४४४ = १६ x १६ = २५६। यह वर्ग-वर्ग फल है।
.१०. कला गणित में इसे 'क्रकंच-व्यवहार' कहते हैं। यह पाटी गणित का एक भेद है। इससे लकड़ी की चिराई और पत्थरों की चिनाई आदि का ज्ञान होता है। जैसे-एक काष्ठ मूल में २० अंगुल मोटा है और ऊपर में १६ अंगुल मोटा है। वह १०० अंगुल लम्बा है। उसको चार स्थानों में चीरा तो उसकी हस्तात्मक चिराई क्या होगी? मूल मोटाई और ऊपर की मोटाई का योग किया - २०+१६=३६। इसमें २ का भाग दिया ३६+२=१८। इसको लम्बाई से गुणा किया - १००x१८=१८०० । फिर इसे चीरने की संख्या से गुणा किया १८००x४ =७२०० । इसमें ५७६ का भाग दिया ७२००:५७६=१२४। यह हस्तात्मक चिराई है।
सूत्रकृतांग २१ की व्याख्या के प्रारंभ में 'पौंडरीक' शब्द के निक्षेप के अवसर पर वृत्तिकार ने एक गाथा उद्धृत की है, उसमें गणित के दस प्रकारों का उल्लेख किया है। वहां नौ प्रकार स्थानांग के समान ही हैं। केवल एक प्रकार भिन्न रूप से उल्लिखित है। स्थानांग का कल्प शब्द उसमें नहीं है। वहां 'पुद्गल' शब्द का उल्लेख है. जो स्थानांग में प्राप्त नहीं है।
स्थानाङ्गसूत्रे दशमेऽध्ययने ७४० तमे सूत्रे गणितविषयक एक उल्लेखः प्राप्यते। एतस्मिन् विषये आधुनिकैः विद्वद्भिः यथा विचार्यते तदुपदर्शनार्थ पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोधसंस्थानेन [P.V. Research Institute, I.T.I. Road, B.H.U. Varanasi-5 U.P.] 1987 A.D. वर्षे प्रकाशिते जैन विद्या के आयाम ग्रन्थाङ्ग १ Aspects of JainologyVol.| मध्ये एको विस्तृतो निबन्धः प्रकाशितो वर्तते सोऽत्र यथायोगं संस्कार्य यथावदेवोपन्यस्यस्तेऽस्माभिः। 1. आर्यभटीय, गणितपाद, श्लोक ३ ।। 2. त्रिशतिका, पृष्ठ ५ ।। 3. हिन्दूगणितशास्त्र का इतिहास, पृष्ठ १४७ ।। 4. आर्यभटीय, गणितपाद, श्लोक ३ ।। 5. त्रिशतिका, पृष्ठ ६ ।। 6. गणित-सारसंग्रह, पृष्ठ १४ ।। 7. लीलावती, पृष्ठ ५ ।।
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