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श्री स्थानाङ्ग सूत्र
प्रस्तावना
नहीं है। ४. आर्यसत्य का भी परिज्ञान है और बाह्य आकार भी सुन्दर है, वह तीसरे-चौथे कुंभ के समान है।
स्थानांग' में साधना के लिये शल्य-रहित होना आवश्यक माना है। मज्झिमनिकाय में तृष्णा के लिए शल्य शब्द का प्रयोग हुआ है और साधक को उससे मुक्त होने के लिए कहा गया है। स्थानांग में नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव गति का वर्णन है। मज्झिमनिकाय' में पाँच गतियाँ बतायी हैं। नरक, तिर्यक्, प्रेत्यविषयक, मनुष्य और देवता। जैन आगमों में प्रेत्यविषय और देवता को एक कोटि में माना है। भले ही निवासस्थान की दृष्टि से दो भेद किये गये हों पर गति की दृष्टि से दोनों एक ही हैं। स्थानांग में नरक और स्वर्ग में जाने के क्रमशः ये कारण . बताये हैं-महारम्भ, महापरिग्रह, मद्यमांस का आहार, पंचेन्द्रियवध। तथा सराग संयम, संयमासंयम, बालतप
और अकामनिर्जरा ये स्वर्ग के कारण हैं। मज्झिमनिकाय में भी नरक और स्वर्ग के कारण बताये गये हैं (कायिक ३) हिंसक, अदिनादायी (चोर) कान में मिथ्याचारी, (वाचिक) मिथ्यावादी, चुगलखोर, परुष-भाषी, प्रलापी (मानसिक ३) अभिध्यालु, मिथ्यादृष्टि। इन कर्मों को करने वाले नरक में जाते हैं, इसके विपरीत कार्य करने वाले स्वर्ग में जाते हैं।
स्थानांग' में बताया है कि तीर्थंकर, चक्रवर्ती पुरुष ही होते हैं। किन्तु मल्ली भगवती स्त्रीलिंग में तीर्थंकर हुई हैं। उन्हें दश आश्चर्यों में से एक आश्चर्य माना है। अंगुत्तरनिकाय में बुद्ध ने भी कहा कि भिक्षु यह तनिक भी संभावना नहीं है कि स्त्री अर्हत्, चक्रवर्ती व शक्र हो।
इस प्रकार हम देखते हैं कि स्थानांग विषय-सामग्री की दृष्टि से आगम-साहित्य में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। यों सामान्य गणना के अनुसार इस में बारह सौ विषय हैं। भेद-प्रभेद की दृष्टि से विषयों की संख्या और भी अधिक है। यदि इस आगम का गहराई से परिशीलन किया जाये तो विविध विषयों का गम्भीर ज्ञान हो सकता है। भारतीय-ज्ञानगरिमा और सौष्ठव का इतना सुन्दर समम्वय अन्यत्र दुर्लभ है। इसमें ऐसे अनेक सार्वभौम सिद्धान्तों का संकलन-आकलन हुआ है, जो जैन, बौद्ध और वैदिक-परम्पराओं के ही मूलभूत सिद्धान्त नहीं हैं अपितु आधुनिक विज्ञान-जगत में मूलसिद्धान्त के रूप में वैज्ञानिकों के द्वारा स्वीकृत है। हर ज्ञानपिपासु और अभिसन्धित्सु को प्रस्तुत आगम अन्तस्तोष प्रदान करता है। व्यारव्या-साहित्य
स्थानांग सूत्र में विषय की बहुलता होने पर भी चिन्तन की इतनी मटिलता नहीं है; जिसे उद्घाटित करने के लिये उस पर व्याख्यासाहित्य का निर्माण अत्यावश्यक होता। यही कारण है कि प्रस्तुत आगम पर न किसी नियुक्ति का निर्माण हुआ और न भाष्य ही लिखे गये, न चूर्णि ही लिखी गयी। सर्वप्रथम इस पर संस्कृत भाषा में नवाङ्गीटीकाकार अभयदेव सूरि ने वृत्ति का निर्माण किया। आचार्य अभयदेव प्रकृष्ट प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने वि. सं. ग्यारह सौ बीस में स्थानांग सूत्र पर वृत्ति लिखी। प्रस्तुत वृत्ति मूल सूत्रों पर है जो केवल शब्दार्थ तक ही सीमित नहीं है, अपितु उसमें सूत्र से सम्बन्धित विषयों पर गहराई से विचार हुआ है। विवेचन में दार्शनिक दृष्टि यत्र-तत्र स्पष्ट हुई है। 'तथा हि' 'यदुक्तं' 'उक्तं च' 'आह च तदुक्तं' 'यदाह' प्रभृति शब्दों के साथ अनेक अवतरण दिये हैं। आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए विशेषावश्यकभाष्य की अनेक गाथाएँ उद्धृत की हैं। अनुमान से आत्मा की सिद्धि करते हुए लिखा है-इस शरीर का भोक्ता कोई न कोई अवश्य होना 1. स्थानांग, सूत्र १८२ 2. मज्झिमनिकाय, ३-१-५ 3. स्थानांग, स्थान ४ 4. मज्झिमनिकाय, १-२-२ 5. स्थानांग, स्थान ४ उ. ४,
सूत्र ३७३ 6. मज्झिमनिकाय, १-५-१ 7. स्थानाङ्ग, स्थान १० 8. अंगुत्तरनिकाय
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