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प्रस्तावना
श्री स्थानाङ्ग सूत्र चाहिए, क्योंकि यह शरीर भोग्य है। जो भोग्य होता है उसका अवश्य ही कोई भोक्ता होता है। प्रस्तुत शरीर का कर्ता "आत्मा" है। यदि कोई यह तर्क करे कि कर्ता होने से रसोइया के समान आत्मा की भी मूर्त्तता सिद्ध होती है तो ऐसी स्थिति में प्रस्तुत हेतु साध्यविरुद्ध हो जाता है किन्तु यह तर्क बाधक नहीं है, क्योंकि संसारी आत्मा कथंचित् मूर्त भी है। अनेक स्थलों पर ऐसी दार्शनिक चर्चाएं हुई हैं। वृत्ति में यत्र-तत्र निक्षेपपद्धति का उपयोग किया है, जो नियुक्तियों और भाष्यों का सहज स्मरण कराती है। वृत्ति में मुख्य रूप से संक्षेप में विषय को स्पष्ट करने के लिए दृष्टान्त भी दिये गये हैं।
· वृत्तिकार अभयदेव सूरिजी ने उपसंहार में अपना परिचय देते हुये यह स्वीकार किया है कि यह वृत्ति मैंने यशोदेवगणी की सहायता से सम्पन्न की। वृत्ति लिखते समय अनेक कठिनाईयाँ आयीं। प्रस्तुत वृत्ति को द्रोणाचार्य ने आदि से अन्त तक पढ़कर संशोधन किया। उनके लिये भी वृत्तिकार ने उनका हृदय से आभार व्यक्त किया। वृत्ति का ग्रन्थमान चौदह हजार दौ सौ पचास श्लोक है। प्रस्तुत वृत्ति सन् १८८० में राय धनपतसिंह द्वारा कलकत्ता से प्रकाशित हुई। सन् १९१८ और १९२० में आगमोदय समिति बम्बई से, १९३७ में माणकलाल चुन्नीलाल अहमदाबाद से और सन १९५१ में गजराती अनवाद के साथ मन्द्रा (कच्छ) से प्रकाशित हई। जिसका पनः प्रकाशन भीनमाल से गुरु रामचंद्र प्रकाशन समिति द्वारा यह दो भागों में प्रकाशित हआ है। सं.केवल गजराती अनुवाद के साथ सन् १९३१ में जीवराज घेलाभाई डोसा ने अहमदाबाद से सन् १९५५ में पं. दलसुख भाई मालवणिया ने गुजरात विद्यापीठ, अहमदाबाद से स्थानांग समवायांग के साथ में रूपान्तर प्रकाशित किया है। जहाँ-तहाँ तुलनात्मक टिप्पण देने से यह ग्रन्थ अतीव महत्त्वपूर्ण बन गया है।
संस्कृतभाषा में संवत् १६५७ में नगर्षिगणि तथा पार्श्वचन्द्र वसुमति कल्लोल और संवत् १७०५ में हर्षनन्दन ने भी स्थानांग पर वृत्ति लिखी है तथा पूज्य घासीलालजी म. ने अपने ढंग से उस पर वृत्ति लिखी है। वीर संवत् २४४६ में हैदराबाद से सर्वप्रथम हिन्दी अनुवाद के साथ आचार्य अमोलकऋषिजी म. ने सरल संस्करण प्रकाशित करवाया। सन् १९७२ में मुनि श्री कन्हैलालजी 'कमल' ने आगम अनुयोग प्रकाशन, साण्डेराव से स्थानांग का एक शानदार संस्करणं प्रकाशित करवाया है, जिसमें अनेक परिशिष्ट भी हैं। आचार्यसम्राट आत्मारामजी म. ने हिन्दी
में विस्तृत व्याख्या लिखी। वह आत्माराम-प्रकाशन समिति, लुधियाना से प्रकाशित हुई। [इसका पुनर्मुद्रण भी • · हुआ है। वि. सं. २०३३ में मूल संस्कृत छाया हिन्दी अनुवाद तथा टिप्पणी के साथ जैन विश्वभारती से इसका
एक प्रशस्त संस्करण भी प्रकाशित हुआ है। [वि.सं. २०६० में मुनिराज श्री जंबुविजयजी द्वारा तीन भागों में मूल, टीका अनेक पाठान्तर एवं अनेक परिशिष्टों के द्वारा प्रकाशित हुआ है।]
- देवेन्द्रमुनि शास्त्री [आगम प्रकाशन ब्यावर के प्रथम संस्करण से]
स्थानकवासी जैन धर्मस्थानक, राखी (राजस्थान) ज्ञानपंचमी, २/११/१९८१
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