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________________ श्री स्थानाङ्ग सूत्र सानुवाद भाग २ परिशिष्ट २४. पदबद्ध (सू.४८) इसे निबद्धपद भी कहा जाता है। पद दो प्रकार का है-निबद्ध और अनिबद्ध। अक्षरों की नियत संख्या, छन्द तथा यति के नियमों से नियन्त्रित पदसमूह 'निबद्धपद' कहलाता है। २५. छन्द (सू. ४८) तीन प्रकार के छन्द की दूसरी व्याख्या इस प्रकार हैसम-जिसमें चारों चरणों के अक्षर- समान हों। अर्द्धसम-जिसमें पहले और तीसरे तथा दूसरे और चौथे चरण के अक्षर समान हों। सर्वविषम-जिसमें सभी चरणों के अक्षर विषम हों।2 २७. तालसम (सू. ४८) दाहिने हाथ से ताली बजाना 'काम्या' है। बाएं हाथ से ताली बजाना 'ताल' और, दोनों हाथों से ताली बजाना 'संनिपात' है। २८. पादसम (सू. ४८) अनुयोगद्वार में इसके स्थान पर 'पदसम' है। २९. लयसम (सू. ४८) तालक्रिया के अनन्तर (अगली तालक्रिया से पूर्व तक) किया जाने वाला विश्राम लय कहलाता है। ३०. ग्रहसम (सू. ४८) इसे समग्रह भी कहा जाता है। ताल में सम, अतीत और अनागत-ये तीन ग्रह हैं। गीत, वाद्य और नृत्य के साथ होने वाला ताल का आरम्भ अवपाणि या समग्रह, गीत आदि के पश्चात् होने वाला ताल आरम्भ अवपाणि या अतीतग्रह तथा गीत आदि से पूर्व होने वाला ताल का प्रारम्भ उपरिपाणि या अनागतग्रह कहलाता है। सम, अतीत और अनागत ग्रहों में क्रमशः मध्य, द्रुत और विलंबित लय होता है। ३१. तानों (सू. ४८) इसका अर्थ है-स्वर-विस्तार, एक प्रकार की भाषाजनक राग। ग्राम रागों के आलापप्रकार भाषा कहलाते हैं।' 1. भरत का नाट्यशास्त्र ३२।३९ : नियताक्षरसंबन्धम्, छन्दोयतिसमन्वितम्। निबद्धं तु पदं ज्ञेयम्, नानाछन्दःसमुद्भवम् ।। 2. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३७६ : अन्ये तु व्याचक्षते समं यत्र चतुर्वपि पादेषु समान्यक्षराणि, अर्द्धसमं यत्र प्रथमतृतीययो-द्वितीयचतुर्थयोश्च समत्वम्, तथा सर्वत्र-सर्वपादेषु विषमं च विषमाक्षरम् । 3. भरत का संगीत सिद्धान्त, पृष्ठ २३५। 4. अनुयोगद्वार ३०७।८ ।। 5. भरत का संगीत सिद्धान्त, पृष्ठ २४२ ।। 6. संगीत रत्नाकर, ताल, पृष्ठ २६ ।। 7. भरत का संगीत सिद्धान्त, पृष्ठ २२६ ।। 410
SR No.005768
Book TitleSthanang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages484
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & agam_sthanang
File Size12 MB
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