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परिशिष्ट
श्री स्थानाङ्ग सूत्र सानुवाद भाग २
नारदीशिक्षा में जो २१ मूर्च्छनाएं बतायी गयी हैं उनमें सात का सम्बन्ध देवताओं से, सात का पितरों से और सात का ऋषियों से है । शिक्षाकार के अनुसार मध्यमग्रामीय मूर्च्छनाओं का प्रयोग यक्षों द्वारा, षड्जग्रामीय मूर्च्छनाओं का ऋषियों तथा लौकिक गायको द्वारा तथा गान्धारग्रामीय मूर्च्छनाओं का प्रयोग गन्धवों द्वारा होता है । '
इस आधार पर मूर्च्छनाओं के तीन प्रकार होते हैं - देवमूर्च्छनाएं, पितृमूर्च्छनाएं और ऋषिमूर्च्छनाएं । २०. गीत (सू. ४८) दशांशलक्षणों से लक्षित स्वरसन्निवेश, पद, ताल एवं मार्ग-इन चार अंगों से युक्त गान 'गीत' कहलाता है। 2
२१, २२. गीत के छह दोष, गीत के आठ गुण (सू. ४८) नारदीशिक्षा में गीत के दोषों और गुणों का सुन्दर विवेचन प्राप्त होता है। उसके अनुसार दोष चौदह और गुण दस हैं। वे इस प्रकार हैं - चौदह दोष ' - ( १ ) शंकित, (२) भीत, (३) उद्धृष्ट, (४) अव्यक्त, (५) अनुनासिक, (६) काकस्वर, (७) शिरोगत, (८) स्थानवर्जित, (९) विस्वर, (१०) विरस, (११) विश्लिष्ट, (१२) विषमाहत, (१३) व्याकुल तथा ( १४ ) तालहीन |
प्रस्तुत सूत्रगत छह दोषों का समावेश इनमें हो जाता है - (१) भीत-भीत, (२) ताल - वर्जित - तालहीन, (३) द्रुत-विषमाहत, (४) काकस्वर- काकस्वर, (५) ह्रस्व - अव्यक्त, (६) अनुनास - अनुनासिक, दस गुण + - (१) रक्त, (२) पूर्ण, (३) अलंकृत, (४) प्रसन्न, (५) व्यक्त, (६) विकृष्ट, (७) श्लक्ष्ण, (८) सम, (९) सुकुमार और (१०) मधुर ।
नारदीशिक्षा के अनुसार इन दस गुणों की व्याख्या इस प्रकार है
१. रक्त- जिसमें वेणु तथा वीणा के स्वरों का गानस्वर के साथ सम्पूर्ण सामंजस्य हो ।
२. पूर्ण - जो स्वर और श्रुति से पूरित हो तथा छन्द, पाद और अक्षरों के संयोग से सहित हो ।
३. अलंकृत - जिसमें उर, सिर और कण्ठ- तीनों का उचित प्रयोग हो
४, प्रसन्न-जिसमें गद्गद् आदि कण्ठ दोष न हो तथा जो निःशंकतायुक्त हो।
५. व्यक्त - जिसमें गीत के पदों का स्पष्ट उच्चारण हो, जिससे कि श्रोता स्वर, लिंग, वृत्ति, वार्तिक, वचन,
विभक्ति आदि अंगों को स्पष्ट समझ सके ।
६. विकृष्ट - जिसमें पद उच्चस्वर से गाये जाते हों ।
७. श्लक्ष्ण - जिसमें ताल की लय आद्योपान्त समान हो ।
८. सम - जिसमें लय की समरसता विद्यमान हो ।
९. सुकुमार - जिसमें स्वरों का उच्चारण मृदु हो ।
१०. मधुर - जिसमें सहजकण्ठ से ललित पद, वर्ण और स्वर का उच्चारण 15
प्रस्तुत सूत्र में आठ गुणों का उल्लेख है । उपर्युक्त दस गुणों में से सात गुणों के नाम प्रस्तुत सूत्रगत नामों के समान हैं। अविघुष्ट नामक गुण का नारदीशिक्षा में उल्लेख नहीं है। श्री अभयदेवकृत वृत्ति की व्याख्या का उल्लेख हम अनुवाद में दे चुके हैं। यह अन्वेषणीय है कि वृत्तिकार ने ये व्याख्याएं कहाँ से ली थीं।
२३. सम (सू. ४८) जहाँ स्वर ध्वनि को गुरु अथवा लघु न कर आद्योपान्त एक ही ध्वनि में उच्चारित 'किया जाता है, वह 'सम' कहलाता है।
1. नारदीशिक्षा १।२।१३, १४ ।। 2. संगीतरत्नाकर, कल्लीनायकृत टीका, पृष्ठ ३३ ।। 3. नारदीशिक्षा १ । ३ । १२, १३ । 4. वही, १) ३१ ।। 5. नारदीशिक्षा १ । ३ । १ - ११ ।। 6. भरत का नाट्यशास्त्र २९।४७ : सर्वसाम्यात् समो ज्ञेयः, स्थिरस्त्वेकस्वरोऽपि यः । ।
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