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श्री स्थानाङ्ग सूत्र
प्रस्तावना २. कोई पुरुष कृष्णाभिजातिक होकर धर्म करता है। ३. कोई पुरुष कृष्णाभिजातिक हो, अकृष्ण, अशुक्ल निर्वाण को पैदा करता है। ४. कोई पुरुष शुक्लाभिजातिक (ऊँचे कुल में समुत्पन्न होकर) शुक्ल कर्म करता है। ५. कोई पुरुष शुक्लाभिजातिक हो कृष्ण धर्म करता है। ६. कोई पुरुष शुक्लाभिजातिक हो, अकृष्ण-अशुक्ल निर्वाण को पैदा करता है।
महाभारत में प्राणियों के छह प्रकार के वर्ण बताये हैं। सनत्कुमार ने दानवेन्द्र वृत्रासुर से कहा-प्राणियों के वर्ण छह होते हैं-कृष्ण, धूम्र, नील, रक्त, हारिद्र और शुक्ल। इनमें से कृष्ण, धूम्र और नील वर्ण का सुख माध्यम होता है। रक्त वर्ण अधिक सह्य होता है, हारिद्र वर्ण सुखकर और शुक्ल वर्ण अधिक सुखकर होता है।
गीता में गति के कृष्ण और शुक्ल ये दो विभाग किये हैं। कृष्ण गतिवाला पुनः पुनः जन्म लेता है और शुक्ल गतिवाला जन्म-मरण से मुक्त होता है।
___धम्मपद में धर्म के दो विभाग किये हैं। वहाँ वर्णन है कि पण्डित मानव को कृष्ण धर्म को छोड़कर शुक्ल धर्म का आचरण करना चाहिए।
पतंजलि ने पातंजलयोगसूत्र में कर्म की चार जातियाँ प्रतिपादित की हैं-कृष्ण, शुक्ल-कृष्ण, शुक्ल, अशुक्लअकृष्ण ये क्रमशः अशुद्धतर, अशुद्ध, शुद्ध और शुद्धतर हैं। इस तरह स्थानांग सूत्र में आये हुये लेश्यापद से आंशिक दृष्टि से तुलना हो सकती है।
स्थानांग में सुगत के तीन प्रकार बताये हैं-१. सिद्धिसुगत, २. देवसुगत, ३. मनुष्यसुगत। अंगुत्तरनिकाय में भी राग-द्वेष और मोह को नष्ट करने वाले को सुगत कहा है।'
स्थानांग के अनुसार पाँच कारणों से जीव दुर्गति में जाता है। वे कारण हैं-१. हिंसा, २. असत्य, ३. चोरी, ४. मैथुन, ५. परिग्रह। अंगुत्तरनिकाय में नरक जाने कारणों पर चिन्तन करते हुए लिखा है-अकुशल कार्यकर्म, अकुशल वाक्कर्म, अकुशल मनःकर्म, सावद्य आदि कर्म।
श्रमण के लिए स्थानांग10 में छह कारणों से आहार करने का उल्लेख है-१. क्षुधा की उपशान्ति, २. . वैयावृत्त्य, ३. ईशोधन, ४. संयमपालन, ५. प्राणधारण, ६. धर्मचिन्तन। अंगुत्तरनिकाय में आनन्द ने एक श्रमणी को इसी तरह का उपदेश दिया है।11 ___ स्थानांगसूत्र12 में इहलोकभय, परलोकभय, आदानभय, अकस्मात्भय, वेदनाभय, मरणभय, अश्लोकभय, आदि भयस्थान बताये हैं तो अंगुत्तरनिकाय13 में भी जाति, जन्म, व्याधि, मरण, अग्नि, उदक, राज, चोर, आत्मानुवाद-अपने दुश्चरित का विचार (दूसरे मुझे दुश्चरित्रवान कहेंगे यह भय), दण्ड, दुर्गति, आदि अनेक भयस्थान बताये हैं।
स्थानांगसूत्र14 में बताया है कि मध्यलोक में चन्द्र, सूर्य, मणि, ज्योति, अग्नि आदि से प्रकाशं होता है। अंगुत्तरनिकाय15 में आभा, प्रभा, आलोक, प्रज्योत इन प्रत्येक के चार-चार प्रकार बताये हैं-चन्द्र, सूर्य, अग्नि
और प्रज्ञा। 1. अंगुत्तरनिकाय ६/६/३, भाग तीसरा, पृ. ३५, ९३-९४ 2. महाभारत, शान्तिपर्व २८०/३३ 3. गीता ८/२६ 4. धम्मपद पण्डितवग्ग,
श्लोक १९ 5. पातंजलयोगसूत्र ४/५ 6. स्थानांगसूत्र १८४ 7. अंगुत्तरनिकाय, ३.७२ 8. स्थानांग, ३९१ 9. अंगुत्तरनिकाय, ३/ ७२ 10. स्थानांग ५०० 11. अंगुत्तरनिकाय, ४/१५९ 12. स्थानांग, ५४९ 13. अंगुत्तरनिकाय, ४/११९ 14. स्थानांग, स्थान ४ 15. अंगुत्तरनिकाय, ४/१४१, १४५
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