________________
श्री स्थानाङ्ग सूत्र
प्रस्तावना स्थानांगसूत्र' के सूत्र २८२ में चार विकथा और विकथाओं के प्रकार का विस्तार से निरूपण है। वैसा वर्णन समवायांग और प्रश्नव्याकरण में भी मिलता है।
स्थानांगसूत्र के ३५६वें सूत्र में चार संज्ञाओं और उनके विविध प्रकारों का वर्णन है। वैसा ही वर्णन समवायांग, प्रश्नव्याकरण और प्रज्ञापना में भी प्राप्त है।
स्थानांगसूत्र' के ३८६वें सूत्र में अनुराधा, पूर्वाषाढ़ा के चार-चार ताराओ का वर्णन है। वही वर्णन समवायांग सूर्यप्रज्ञप्ति' आदि में भी है।
स्थानांगसूत्र के ६३४वें सूत्र में मगध का योजन आठ हजार धनुष का बताया है। वही वर्णन समवायांग में भी है। तुलनात्मक अध्ययन बौद्ध और वैदिक ग्रन्थ
स्थानांग के अन्य अनेक सूत्रों में आये हुये विषयों की तुलना अन्य आगमों से भी की जा सकती है। किन्तु विस्तारभय से हमने संक्षेप में ही सूचन किया है। अब हम स्थानांग के विषयों की तुलना बौद्ध और वैदिक ग्रन्थों के साथ कर रहे हैं। जिससे यह परिज्ञात हो सके कि भारतीय संस्कृति कितनी मिली-जुली रही है। एक संस्कृति का दूसरी संस्कृति पर कितना प्रभाव रहा है।
स्थानांग12 में बताया है कि छह कारणों से आत्मा उन्मत्त होता है। अरिहंत का अवर्णवाद करने से, धर्म का अवर्णवाद करने से, चतुर्विध संघ का अवर्णवाद करने से, यक्ष के आवेश से, मोहनीय कर्म के उदय से, तो तथागत बुद्ध ने भी अंगुत्तरनिकाय13 में कहा है-चार अचिन्तनीय की चिन्ता करने से मानव उन्मादी हो जाता है-१. तथागत बुद्ध भगवान् के ज्ञान का विषय, २. ध्यानी के ध्यान का विषय, ३. कर्मविपाक, ४. लोकचिन्ता।
स्थानांग14 में जिन कारणों से आत्मा के साथ कर्म का बन्ध होता है, उन्हें आश्रव कहा है। मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय और योग ये आश्रव हैं। बौद्ध ग्रन्थ अंगुत्तरनिकाय में आश्रव का मूल "अविद्या" बताया है। अविद्या के निरोध से आश्रव का अपने आप निरोध होता है। आश्रव के कामाश्रव, भवाश्रव, अविद्याश्रव ये तीन भेद किये हैं। मज्झिमनिकाय के अनुसार मन, वचन और काय की क्रिया को ठीक-ठीक करने से आश्रव रुकता है। आचार्य उमास्वाति17 ने भी काय-वचन और मन की क्रिया को योग कहा है वही आश्रव है।
स्थानांगसूत्र में विकथा के स्त्रीकथा, भक्तकथा, देशकथा, राजकथा, मृदुकारुणिककथा, दर्शनभेदिनीकथा और चारित्रभेदनीकथा ये सात प्रकार बताये हैं।18 बुद्ध ने विकथा के स्थान पर 'तिरच्छाव' शब्द का प्रयोग किया है। उसके राजकथा, चोरकथा, महामात्यकथा, सेनाकथा, भयकथा, युद्धकथा, अन्नकथा, पानकथा, वस्त्रकथा, शयनकथा, मालाकथा, गन्धकथा, ज्ञातिकथा, यानकथा, ग्रामकथा, निगमकथा, नगरकथा, जनपदकथा, स्त्रीकथा आदि अनेक भेद किये हैं।19
स्थानांग20 में राग और द्वेष से पाप कर्म का बन्ध बताया है। अंगुत्तरनिकाय21 में तीन प्रकार से कर्मसमुदय 1. स्थानांग, अ. ४, उ. २, सूत्र २८२ 2. प्रश्रव्याकरण, ५ वाँ सवरद्वार 3. समवायांग, सम. ४, सूत्र ४ 4. स्थानांगसूत्र, अ. ४, उ.
४, सूत्र ३५६ 5. समवायांग, सम. ४, सूत्र ४ 6. प्रज्ञापनासूत्र, पद ८ 7. स्थानांगसूत्र, अ. ४, सूत्र ४८६ 8. समवायांग, सम. ४, सूत्र ७ 9. सूर्यप्रज्ञप्ति, प्रा. १०, प्रा. ९, सूत्र ४२ 10. स्थानांगसूत्र, अ.८, उ. १, सूत्र ६३४ 11. समवायांगसूत्र, सम. ४, सूत्र ६ 12. स्थानांग, स्थान ६, 13. अंगुत्तरनिकाय, ४-७७ 14. स्थानांग, स्था. ५, सूत्र ४१८ 15. अंगुत्तरनिकाय, ३-५८, ६-६३ 16. मज्झिमनिकाय, १-१-२ 17. तत्त्वार्थसूत्र, अ. ६, सूत्र १,२ 18. स्थानांगसूत्र, स्थान ७, सूत्र ५६९ 19. अंगुत्तरनिकाय, १०, ६९ 20. स्थानांग १६ 21. अंगुत्तरनिकाय ३/३
M