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श्री स्थानाङ्ग सूत्र
प्रस्तावना
उपेक्षा भी करते हैं। वे अनुकूलता के समय वात्सल्य का परिचय देते हैं और प्रतिकूलता के समय उपेक्षा भी कर देते हैं। कितने ही श्रमणोपासक ईर्ष्या के वशीभूत होकर श्रमणों में दोष ही निहारा करते हैं। वे किसी भी रूप में श्रमणों का उपकार नहीं करते हैं। उनके व्यवहार की तुलना सौत से की गयी है ।
प्रस्तुत आगम में श्रमणोपासक की आन्तरिक योग्यता के आधार पर चार वर्ग किये हैं
१. कितने ही श्रमणोपासक दर्पण के समान निर्मल होते हैं। वे तत्त्वनिरूपण के यथार्थ प्रतिबिम्ब को ग्रहण करते हैं।
२. कितने ही श्रमणोपासक ध्वजा की तरह अनवस्थित होते हैं। ध्वजा जिधर भी हवा होती है, उधर ही मुड़ जाती है । उसी प्रकार उन श्रमणोपासकों का तत्त्वबोध अवस्थित होता है। निश्चित-बिन्दु पर उनके विचार स्थिर नहीं होते ।
३. कितने ही श्रमणोपासक स्थाणु की तरह प्राणहीन और शुष्क होते हैं। उनमें लचीलापन नहीं होता । वे आग्रही होते हैं।
४. कितने ही श्रमणोपासक काँटें के सदृश होते हैं । काँटें की पकड़ बड़ी मजबूत होती है। वह हाथ को बींध देता है। वस्त्र भी फाड़ देता है। वैसे ही कितने ही श्रमणोपासक कदाग्रह से ग्रस्त होते हैं। श्रमण कदाग्रह छुड़वाने के लिए उसे तत्त्वबोध प्रदान करते हैं । किन्तु वे तत्त्वबोध को स्वीकार नहीं करते। अपितु तत्त्वबोध प्रदान करने वाले को दुर्वचनों के तीक्ष्ण काँटों से वेध देते हैं। इस तरह श्रमणोपास के सम्बन्ध में पर्याप्त सामग्री है।
श्रमणोपासक की तरह ही श्रमणजीवन के सम्बन्ध में भी स्थानांग में महत्त्वपूर्ण सामग्री का संकलन हुआ है। श्रमण का जीवन अत्यन्त उग्र साधना का है। जो धीर, वीर और साहसी होते हैं, वे इस महामार्ग को अपनाते हैं। श्रमणजीवन हर साधक, जो मोक्षाभिलाषी है, स्वीकार कर सकता है। स्थानांग में प्रव्रज्याग्रहण करने के दश कारण बताये हैं। 2 यों अनेक कारण हो सकते हैं, किन्तु प्रमुख कारणों का निर्देश किया गया है । वृत्तिकार ने दश प्रकार की प्रव्रज्या के उदाहरण भी दिये हैं । - १. छन्दा- अपनी इच्छा से विरक्त होकर प्रव्रज्या धारण करना। २. रोषा - क्रोध के कारण प्रव्रज्या ग्रहण करना । ३. दारिद्र्यद्यूमा - गरीबी के कारण प्रव्रज्या ग्रहण करना । ४. स्वप्ना- स्वप्न से वैराग्य उत्पन्न होकर दीक्षा लेना । ५. प्रतिश्रुता- पहले की गयी प्रतिज्ञा की पूर्ति के लिए प्रव्रज्या ग्रहण करना । ६. स्मरणिका – पूर्व भव की स्मृति के कारण प्रव्रज्या ग्रहण करना । ७. रोगिनिका - रुग्णता के कारण प्रव्रज्या ग्रहण करना। ८. अनादृता - अपमान के कारण प्रव्रज्या ग्रहण करना । ९. देवसंज्ञप्तता - देवताओं के द्वारा संबोधित किये जाने पर प्रव्रज्या ग्रहण करना । १०. वत्सानुबंधिका - दीक्षित पुत्र के कारण प्रव्रज्या ग्रहण करना ।
श्रम प्रव्रज्या के साथ स्थानांग में श्रमणधर्म की सम्पूर्ण आचारसंहिता दी गयी है। उसमें पाँच महाव्रत, अष्ट प्रवचनमाता, नव ब्रह्मचर्यगुप्ति, परीषहविजय, प्रत्याख्यान, पाँच-परिज्ञा, बाह्य और आभ्यन्तर तप, प्रायश्चित्त, आलोचना करने का अधिकारी, आलोचना के दोष, प्रतिक्रमण के प्रकार, विनय के प्रकार, वैयावृत्त्य के प्रकार, स्वाध्याय - ध्यान, अनुप्रेक्षाएँ, मरण के प्रकार, आचार के प्रकार, संयम के प्रकार, आहार कारण, गोचरी के प्रकार, वस्त्र, पात्र, रजोहरण, भिक्षु- प्रतिमाएँ, प्रतिलेखना के प्रकार, व्यवहार के प्रकार, संघव्यवस्था, आचार्य उपाध्याय के अतिशय, गण- छोड़ने के कारण, शिष्य और स्थविर कल्प, समाचारी सम्भोग - विसम्भोग, निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों के विशिष्ट नियम आदि के श्रमणाचार - सम्बन्धी नियमोपनियमों का वर्णन है।
1. स्थानांगसूत्र, स्थान ४, सूत्र ४३१ 2 स्थानांगसूत्र, स्थान १०, सूत्र ७१२ 3 स्थानांगसूत्र, वृत्ति पत्र - पृ. ४४९
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