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श्री स्थानाङ्ग सूत्र
प्रस्तावना ७. हेतुदोष - असिद्धादि हेत्वाभास। ८. संक्रमण - प्रतिज्ञान्तर करना। या प्रतिवादी के पक्ष को मानना। टीकाकार ने लिखा है-प्रस्तुत
प्रमेय की चर्चा का त्यागकर अप्रस्तुत प्रमेय की चर्चा करना। ९. निग्रह - छलादि के द्वारा प्रतिवादी को निगृहीत करना। १०. वस्तुदोष – पक्ष-दोष अर्थात् प्रत्यक्षनिराकृत आदि। __ न्यायशास्त्र में इन सभी दोषों के सम्बन्ध में विस्तार से विवेचन है। अतः इस सम्बन्ध में यहां विशेष विश्लेषण करने की आवश्यकता नहीं है।
स्थानांग में विशेष प्रकार के दोष भी बताये हैं और टीकाकार ने उस पर विशेष-वर्णन भी किया है। छह प्रकार के वाद के लिए प्रश्नों का वर्णन है। नयवाद' का और निह्नववाद का वर्णन है। जो उस युग के अपनी दृष्टि से चिन्तक रहे हैं। बहुत कुछ वर्णन जहाँ-तहाँ बिखरा पड़ा है। यदि विस्तार के साथ तुलनात्मक दृष्टि से चिन्तन . किया जाये तो दर्शन-संबन्धी अनेक अज्ञात-रहस्य उद्घाटित हो सकते हैं। आचार-विश्लेषण
दर्शन की तरह आचार सम्बन्धी वर्णन भी स्थानांग में बहुत ही विस्तार के साथ किया गया है। आचारसंहिता के सभी मूलभूत तत्त्वों का निरूपण इसमें किया गया है।
धर्म के दो भेद हैं-सागार-धर्म और अनगार-धर्म। सागार-धर्म-सीमित मार्ग है। वह जीवन की सरल और लघु पगदण्डी है। गृहस्थ धर्म अणु अवश्य है किन्तु हीन और निन्दनीय नहीं है। इसलिए सागार धर्म का आचरण करने वाला व्यक्ति श्रमणोपासक या उपासक कहलाता है। स्थानांग में सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र को मुक्ति का मार्ग कहा है। उपासक जीवन में सर्वप्रथम सत्य के प्रति आस्था होती है। सम्यग्दर्शन के आलोक में वह जड़ और चेतन, संसार और मोक्ष, धर्म और अधर्म का परिज्ञान करता है। उसकी यात्रा का लक्ष्य स्थिर हो जाता है। उसका सोचना समझना और बोलना, सभी कुछ विलक्षण होता है। उपासक के लिए "अभिगयजीवाजीवे" यह विशेषण आगम साहित्य में अनेक स्थलों पर व्यवहृत हुआ है। स्थानांग के द्वितीय स्थान में इस सम्बन्ध में अच्छा चिन्तन प्रस्तुत किया है। मोक्ष की उपलब्धि के साधनों के विषय में सभी दार्शनिक एकमत नहीं है। जैन दर्शन न एकान्त ज्ञानवादी है, न क्रियावादी है, न भक्तिवादी है। उसके अनुसार ज्ञान-क्रिया और भक्ति का समन्वय ही मोक्षमार्ग है। स्थानांग में "विज्जाए चेव चरणेण चेव" के द्वारा इस सत्य को उद्घाटित किया है।
स्थानांग' में उपासक के लिये पाँच अणुव्रतों का भी उल्लेख है। उपासक को अपना जीवन, व्रत से युक्त बनाना चाहिए। श्रमणोपासक की श्रद्धा और वृत्ति की भिन्नता के आधार पर इसको चार भागों में विभक्त किया है। जिनके अन्तर्मानस में श्रमणों के प्रति प्रगाढ़ वात्सल्य होता है, उनकी तुलना माता-पिता से की है। वे
त्वचर्चा और जीवननिर्वाह इन दोनों प्रसंगों में वात्सल्य का परिचय देते हैं। कितने ही श्रमणोपासकों के अन्तर्मन में वात्सल्य भी होता है और कुछ उग्रता भी रही हुई होती है। उनकी तुलना भाई से की गयी है। वैसे श्रावक तत्त्वचर्चा के प्रसंगों में निष्ठुरता का परिचय देते हैं। किन्तु जीवन-निर्वाह के प्रसंग में उनके हृदय में वत्सलता छलकती है। कितने ही श्रमणोपासकों में सापेक्ष वृत्ति होती है। यदि किसी कारणवश प्रीति नष्ट हो गयी तो वे
1. स्थानांगसूत्र, स्थान ७ 2. स्थानांगसूत्र, स्थान ७ 3. स्थानांगसूत्र, स्थान २, सूत्र ७२ 4. स्थानांगसूत्र, स्थान ३, सूत्र ४३ से १३७
5. स्थानांगसूत्र, स्थान २.6. स्थानांगसूत्र, स्थान २, सूत्र ४० 7. स्थानांगसूत्र, स्थान ५, सूत्र ३८९ xxxvi