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प्रस्तावना
श्री स्थानाङ्ग सूत्र
अवभान व्यवसाय है, न कि ग्रहणमात्र।' आचार्य अकलंक आदि ने भी प्रमाणलक्षण में "व्यवसाय" पद को स्थान दिया है और प्रमाण को व्यवसायात्मक कहा है। स्थानांग में व्यवसाय बताये गये हैं-प्रत्यक्ष, प्रात्ययिकआगम और अनुगामिक-अनुमान। इन तीन की तुलना वैशेषिक दर्शन सम्मत प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम इन तीन प्रमाणों से की जा सकती है। ___ भगवान् महावीर के शिष्यों में चार सौ शिष्य वाद-विद्या में निपुण थे। नवमें स्थान में जिन नव प्रकार के विशिष्ट व्यक्तियों को बताया है उनमें वाद-विद्या विशारद व्यक्ति भी हैं। बृहत्कल्प भाष्य में वादविद्याकुशल श्रमणों के लिये शारीरिक शुद्धि आदि करने के अपवाद भी बताये हैं। वादी को जैन धर्म प्रभावक भी माना है। स्थानांग में विवाद के छह प्रकारों का भी निर्देश है। अवष्वक्य, उत्ष्वक्य, अनुलोम्य, प्रतिलोम्य, भेदयित्वा, मेलयित्वा। वस्तुतः ये विवाद के प्रकार नहीं, किन्तु वादी और प्रतिवादी द्वारा अपनी विजयवैजयन्ती फहराने के लिए प्रयुक्त की जाने वाली युक्तियों के प्रयोग हैं। टीकाकार ने यहाँ विवाद का अर्थ "जल्प" किया है। जैसे
निश्चित् समय पर यदि वादी की वाद करने की तैयारी नहीं है तो वह स्वयं बहाना बनाकर सभास्थान
का त्याग कर देता है या प्रतिवादी को वहाँ से हटा देता है। जिससे वाद में विलम्ब होने के कारण वह ___ उस समय अपनी तैयारी कर लेता है। २. जब वादी को यह अनुभव होने लगता है कि मेरे विजय का अवसर आ चका है. तब वह सोल्लास
बोलने लगता है। और प्रतिवादी को प्रेरणा देकर के वाद को शीघ्र प्रारम्भ कराता है। ३. वादी सामनीति से विवादाध्यक्ष को अपने अनुकूल बनाकर वाद का प्रारम्भ करता है। या प्रतिवादी को . - अनूकुल बनाकर वाद प्रारम्भ कर देता है। उसके पश्चात् उसे वह पराजित कर देता है।'
४. यदि वादी को यह आत्म-विश्वास हो कि प्रतिवादी को हराने में वह पूर्ण समर्थ है तो वह सभापति और ___प्रतिवादी को अनुकूल न बनाकर प्रतिकूल ही बनता है और प्रतिवादी को पराजित करता है। ५. अध्यक्ष की सेवा करके वाद करना। ६. जो अपने पक्ष में व्यक्ति हैं उनका अध्यक्ष से मेल कराता है। और प्रतिवादी के प्रति अध्यक्ष के मन में
द्वेष पैदा करता है। स्थानांग में वादकथा के दश दोष गिनाये हैं। वे इस प्रकार हैं१. तज्जातदोष – प्रतिवादी के कुल का निर्देश करके उसके पश्चात् दूषण देना अथवा प्रतिवादी की
प्रकृष्ट प्रतिभा से विक्षुब्ध होने के कारण वादी का चुप हो जाना। २. मतिभंग - वाद-प्रसंग में प्रतिवादी या वादी का स्मृतिभ्रंश होना। ३. प्रशास्तृदोष – वाद-प्रसंग में सभ्य या सभापति-पक्षपाती होकर जय-दान करें या किसी को
सहायता दें। ४. परिहरण - सभा के नियम-विरुद्ध चलना या दूषण का परिहार जात्युत्तर से करना। ५. स्वलक्षण - अतिव्याप्ति आदि दोष।
६. कारण - युक्तिदोष 1. न्यायावतारवार्तिक, वृत्ति-कारिका ३ 2. न्यायावतारवार्तिक वृत्ति के टिप्पण पृ. १४८ से १५१ तक 3. स्थानांगसूत्र, स्थान ९, सूत्र
३८२ 4. बृहत्कल्प भाष्य ६०३५ 5. स्थानांगसूत्र, स्थान ६, सूत्र ५१२ 6. तुलना कीजिये चरक विमानस्थान, अ.८, सूत्र २१ 7. तुलना कीजिये चरक विमानस्थान, अ.८, सूत्र १६ 8. स्थानांगसूत्र, स्थान १०, सूत्र ७४३
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