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श्री स्थानाङ्ग सूत्र
प्रस्तावना
अवधिज्ञान
मनःपर्यवज्ञान
भवप्रत्ययिक
क्षायोपशमिक
ऋजुमति
विपुलमति
.
आभिनिबोधिक
श्रुतज्ञान
अर्थावग्रह
व्यंजनावग्रह अर्थावग्रह
व्यंजनावग्रह
आवश्यक
आवश्यक व्यतिरिक्त
कालिक
उत्कालिक
स्थानांग में प्रमाण शब्द के स्थान पर "हेतु" शब्द का प्रयोग मिलता है। ज्ञप्ति के साधनभूत होने से प्रत्यक्ष आदि को हेतु शब्द से व्यवहृत करने में औचित्यभंग भी नही है। चरक में प्रमाणों का निर्देश "हेतु" शब्द से हुआ है। स्थानांग में ऐतिह्य के स्थान पर आगम शब्द व्यवहृत हुआ है। किन्तु चरक में ऐतिह्य को ही कहा
स्थानांग में निक्षेप पद्धति से प्रमाण के चार भेद भी प्रतिपादित हैं-द्रव्यप्रमाण, क्षेत्रप्रमाण, कालप्रमाण और भावप्रमाण। यहाँ पर प्रमाण का व्यापक अर्थ लेकर उसके भेदों की परिकल्पना की है। अन्य दार्शनिकों की भाँति केवल प्रमेयसाधक तीन, चार, छह आदि प्रमाणों का ही समावेश नहीं है। किन्तु व्याकरण और कोष आदि से सिद्ध प्रमाण शब्द के सभी-अर्थों का समावेश करने का प्रयत्न किया है। यद्यपि मूल-सूत्र में भेदों की गणना के अतिरिक्त कुछ भी नहीं कहा गया है। बाद के आचार्यों ने इन पर विस्तार से विश्लेषण किया हैं। स्थानाभाव में हम इस समबन्ध में विशेष चर्चा नहीं कर रहे हैं।
स्थानांग में तीन प्रकार के व्यवसाय बताये हैं। प्रत्यक्ष "अवधि" आदि, प्रात्ययिक- "इन्द्रिय और मन के निमित्त से" होने वाला, आनुगमिक-"अनुसरण करने वाला।" व्यवसाय का अर्थ है-निश्चय या निर्णय। यह वर्गीकरण ज्ञान के आधार पर किया गया है। आचार्य श्री सिद्धसेन सूरि से लेकर सभी तार्किकों ने प्रमाण को स्वपर व्यवसायी माना है। वार्तिककार शान्त्याचार्य ने न्यायावतारगत अवभास का अर्थ- करते हुए कहा1. स्थानांगसूत्र, स्थान ४, सूत्र ३३८ 2. चरक विमानस्थान, अ.८, सूत्र ३३ 3. चरक विमानस्थान, अ.८, सूत्र ४१ 4. स्थानांगसूत्र,
स्थान ४, सूत्र २५८ 5. स्थानांगसूत्र, स्थान ३, सूत्र १८५ XXXIV