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________________ प्रस्तावना श्री स्थानाङ्ग सूत्र निक्षेपों को "सर्व" पर घटित किया है। सर्व के चार प्रकार हैं-नामसर्व, स्थापनासर्व, आदेशसर्व और निरवशेषसर्व। यहाँ पर द्रव्य आदेश सर्व कहा है। सर्व शब्द का तात्पर्य अर्थ "निरवशेष" है। बिना शब्द के हमारा व्यवहार नहीं चलता। किन्तु वक्ता के विवक्षित अर्थ को न समझने से कभी बड़ा अनर्थ भी हो जाता है। इसी अनर्थ के निवारण हेतु निक्षेप-विद्या का प्रयोग हुआ है। निक्षेप का अर्थ निरूपणपद्धति है। जो वास्तविक अर्थ को समझने में उपयोगी है। ___आगम साहित्य में ज्ञानवाद की चर्चा विस्तार के साथ आयी है। स्थानांग में भी ज्ञान के पाँच भेद प्रतिपादित है। उन पाँच ज्ञानों को प्रत्यक्ष और परोक्ष इन दो भागों में विभक्त किया है। जो ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना और केवल आत्मा से ही उत्पन्न होता है, वह ज्ञान प्रत्यक्ष है। अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान और केवलज्ञान ये तीन प्रत्यक्ष हैं। इन्द्रिय और मन की सहायता से होने वाला ज्ञान "परोक्ष' है। उसके दो प्रकार हैं-मति और श्रुत। स्वरूप की दृष्टि से सभी ज्ञान प्रत्यक्ष हैं। बाहरी पदार्थों की अपेक्षा से प्रमाण के स्पष्ट और अस्पष्ट लक्षण किये गये हैं। बाह्य पदार्थों का निश्चय करने के लिए दूसरे ज्ञान की जिसे अपेक्षा नहीं होती उसे स्पष्ट ज्ञान कहते हैं। जिसे अपेक्षा रहती है, वह अस्पष्ट है। परोक्ष प्रमाण में दूसरे ज्ञान की आवश्यकता होती है। उदाहरण के रूप में स्मृतिज्ञान में धारणा की अपेक्षा रहती है। प्रत्यभिज्ञान में अनुभव और स्मृति की, तर्क में व्याप्ति की। अनुमान में हेतु की, तथा आगम में शब्द और संकेत की अपेक्षा रहती है। अपर शब्दों में यों कह सकते हैं कि जिसका ज्ञेय पदार्थ निर्णय-काल में छिपा रहता है वह ज्ञान अस्पष्ट या परोक्ष है। स्मृति का विषय स्मृतिकर्ता के सामने नहीं होता। प्रत्यभिज्ञान में वह अस्पष्ट होता है। तर्क में भी त्रिकालीन सर्वधूम और अग्नि प्रत्यक्ष नहीं होते। अनुमान का विषय भी सामने नहीं होता और आगम का विषय भी। अवग्रह-आदि आत्म-सापेक्ष न होने से परोक्ष हैं। लोक व्यवहार से अवग्रह आदि को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष में रखा हैं। स्थानाङ्ग में ज्ञान का वर्गीकरण इस प्रकार है ज्ञान प्रत्यक्ष परोक्ष केवलज्ञान नो-केवलज्ञान 1. चत्तारि सव्वा पन्नता-नामसव्वए, ठवणसव्वए, आएससव्वए, निरवसेससव्वए। -स्थानांग २९९ 2. स्थानांगसूत्र, स्थान ५ 3. स्थानांगसूत्र, स्थान २, सूत्र ८६ 4. देखिए जैन दर्शन, स्वरूप और विश्लेषण, पृ. ३२६ से ३७२ देवेन्द्र मुनि 5. स्थानांगसूत्र, स्थान-२, सूत्र ८६ से १०६ Xxxiii
SR No.005768
Book TitleSthanang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages484
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & agam_sthanang
File Size12 MB
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