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________________ श्री स्थानाङ्ग सूत्र प्रस्तावना दृष्टि से प्रथम स्थान का अपना महत्त्व है। द्वितीय स्थान में दो की संख्या से सम्बद्ध विषयों का वर्गीकरण किया गया है। इस स्थान का प्रथम सूत्र है-"जदत्थि णं लोगे तं सव्वं दुपओआरं।" ___जैन दर्शन चेतन और अचेतन ये दो मूल तत्त्व मानता है। शेष सभी भेद-प्रभेद उसके अवान्तर प्रकार हैं। यों जैन दर्शन में अनेकान्तवाद को प्रमुख स्थान है। अपेक्षादृष्टि से वह द्वैतवादी भी है और अद्वैतवादी भी है। संग्रहनय की दृष्टि से अद्वैत सत्य है। चेतन में अचेतन का और अचेतन में चेतन का अत्यन्ताभाव होने से द्वैत भी सत्य है। प्रथम स्थान में अद्वैत का निरूपण है, तो द्वितीय स्थान में द्वैत का प्रतिपादन है। पहले स्थान में उद्देशक नहीं है, द्वितीय स्थान में चार उद्देशक हैं। पहले स्थान की अपेक्षा यह स्थान बड़ा है। ___ प्रस्तुत स्थान में जीव और अजीव, त्रस और स्थावर, सयोनिक और अयोनिक, आयुरहित और आयुसहित, धर्म और अधर्म, बन्ध और मोक्ष आदि विषयों की संयोजना है। भगवान् महावीर के युग में मोक्ष के संबन्ध में दार्शनिकों की विविध धारणाएं थीं। कितने ही विद्या से मोक्ष मानते थे और कितने ही आचरण से। जैन दर्शन अनेकान्तवादी दृष्टिकोण को लिए हुए है। उसका यह वज्र आघोष है कि न केवल विद्या से मोक्ष है और न केवल आचरण से। वह इन दोनों के समन्वित रूप को मोक्ष का साधन स्वीकार करता है। भगवान् महावीर की दृष्टि से विश्व की सम्पूर्ण समस्याओं का मूल हिंसा और परिग्रह है। इनका त्याग करने पर ही बोधि की प्राप्ति होती है। इसमें प्रमाण के दो भेद बताये हैं-प्रत्यक्ष और परोक्ष। प्रत्यक्ष के दो प्रकार हैं-केवलज्ञान प्रत्यक्ष और नोकेवलज्ञान प्रत्यक्ष। इस प्रकार इसमें तत्त्व. आचार. क्षेत्र, काल, प्रभति अनेक विषयों का निरूपण है। विविध दृष्टियों से इस स्थान का महत्त्व है। कितनी ही ऐसी बातें इस स्थान में आयी हैं, जो ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। तृतीय स्थान में तीन की संख्या से सम्बन्धित वर्णन है। यह चार उद्देशकों में विभक्त है। इसमें तात्त्विक विषयों पर जहाँ अनेक त्रिभंगियाँ हैं, वहाँ मनोवैज्ञानिक और साहित्यिक विषयों पर भी त्रिभंगियाँ हैं। त्रिभंगियों के माध्यम से शाश्वत सत्य का मार्मिक ढंग से उद्घाटन किया गया है। मानव के तीन प्रकार है। कितने ही मानव बोलने के बाद मन में अत्यन्त आह्लाद का अनुभव करते हैं और कितने ही मानव भयंकर दुःख का अनुभव करते हैं तो कितने ही मानव न सुख का अनुभव करते हैं और न दुःख का अनुभव करते हैं। जो व्यक्ति सात्त्विक, हित, मित, आहार करते हैं, वे आहार के बाद सुख की अनुभूति करते हैं। जो लोग अहितकारी या मात्रा से अधिक भोजन करते हैं, वे भोजन करने के पश्चात् दुःख का अनुभव करते हैं। जो साधक आत्मस्थ होते है, वे आहार के बाद बिना सुख-दुःख को अनुभव किये तटस्थ रहते हैं। त्रिभंगी के माध्यम से विभिन्न मनोवृत्तियों का सुन्दर विश्लेषण हुआ है। श्रमण-आचारसंहिता के सम्बन्ध में तीन बातों के माध्यम से ऐसे रहस्य भी बताये गये है जो अन्य आगम साहित्य में बिखरे पड़े हैं। श्रमण तीन प्रकार के पात्र रख सकता है-तूम्बा, काष्ठ, मिट्टी का पात्र। निर्ग्रन्थनिर्ग्रन्थियां तीन कारणों से वस्त्र धारण कर सकते हैं-लज्जानिवारण, जुगुप्सानिवारण और परीषह-निवारण। दशवैकालिक' में वस्त्रधारण के संयम और लज्जा ये दो कारण बताये हैं। उत्तराध्ययन2 में तीन कारण हैंलोकप्रतीति, संयमयात्रा का निर्वाह और मुनित्व की अनुभूति। प्रस्तुत आगम में जुगुप्सानिवारण यह नया कारण दिया है। स्वयं की अनुभूति लज्जा है और लोकानुभूति जुगुप्सा है। नग्न व्यक्ति को निहारकर जन-मानस में 1. दशवैकालिकसूत्र, अध्य. ६, गाथा-१९ 2. उत्तराध्ययनसूत्र, अध्य. २३ गाथा-३२ xxviii
SR No.005768
Book TitleSthanang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages484
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & agam_sthanang
File Size12 MB
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