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________________ प्रस्तावना श्री स्थानाङ्ग सूत्र कामड्विगण, माणवगण और कोडितगण इन गणों की उत्पत्ति का विस्तृत उल्लेख कल्पसूत्र में है।' प्रत्येक गण की चार-चार शाखाएं, उद्देह आदि गणों के अनेक कुल थे। ये सभी गण श्रमण भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् दो सौ से पाँच सौ वर्ष की अवधि तक उत्पन्न हुए थे। सातवें स्थान में जमालि, तिष्यगुप्त, आषाढ़, अश्वमित्र, गङ्ग, रोहगुप्त, गोष्ठामाहिल, इन सात निह्नवों का वर्णन है। इन सात निह्नवों में से दो निह्नव भगवान् महावीर को केवलज्ञान प्राप्त होने के बाद हुए और शेष पाँच निर्वाण के बाद हुए। इनका अस्तित्वकाल भगवान् महावीर के केवलज्ञान प्राप्ति के चौदह वर्ष . बाद से निर्वाण के पाँच सौ चौरासी वर्ष पश्चात् तका का है। अर्थात् वे तीसरी शताबी से लेकर छट्ठी शताबी के मध्य में हुए। उत्तर में निवेदन है कि जैन दृष्टि से श्रमण भगवान् महावीर सर्वज्ञ सर्वदर्शी थे। अतः वे पश्चात् होने वाली घटनाओं का संकेत करें, इसमें किसी प्रकार का आश्चर्य नहीं है। जैसे-नवम स्थान में आगामी उत्सर्पिणी-काल के भावी तीर्थंकर महापद्म का चरित्र दिया है। और भी अनेक भविष्य में होने वाली घटनाओं का उल्लेख है। दूसरी बात यह है कि पहले आगम श्रुतिपरम्परा के रूप में चले आ रहे थे। वे आचार्य स्कन्दिल और देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण के समय लिपिबद्ध किये गये। उस समय वे घटनाएं, जिनका प्रस्तुत आगम में उल्लेख है, घटित हो चुकी थीं। अतः जन-मानस में भ्रान्ति न हो जाय, इस दृष्टि से आचार्य प्रवरों ने भविष्य काल के स्थान पर भूतकाल की क्रिया देकर उस समय तक घटित घटनाएं इसमें संकलित कर दी हों। इस प्रकार दो-चार घटनाएं भूतकाल की क्रिया में लिखने मात्र से प्रस्तुत आगम गणधरकृत नहीं है, इस प्रकार प्रतिपादन करना उचित नहीं संख्या-निबद्ध आगम है। इसमें सभी प्रतिपाद्य विषयों का समावेश एक से दस तक की संख्या में किया गया है। एतदर्थ ही इसके दश अध्ययन हैं। प्रथम अध्ययन में संग्रहनय की दृष्टि से चिन्तन किया गया है। संग्रहनय अभेद दृष्टिप्रधान है। स्वजाति के विरोध के बिना समस्त पदार्थों का एकत्व में संग्रह करना अर्थात् अस्तित्वधर्म को न छोड़कर सम्पूर्ण-पदार्थ अपने-अपने स्वभाव में स्थित हैं। इसलिए सम्पूर्ण पदार्थों का सामान्य रूप से ज्ञान करना संग्रहनय है। - आत्मा एक है। यहाँ द्रव्यदृष्टि से एकत्व का प्रतिपादन किया गया है। जम्बूद्वीप एक है। क्षेत्र की दृष्टि से एकत्व विवक्षित है। एक समय में एक ही मन होता है। यह काल की दृष्टि से एकत्व निरूपित है। शब्द एक है। यह भाव की दृष्टि से एकत्व का प्रतिपादन है। इस तरह द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से वस्तुतत्त्व पर चिन्तन किया गया है। प्रस्तुत स्थान में अनेक ऐतिहासिक तथ्यों की सूचनाएं भी हैं। जैसे-भगवान् महावीर अकेले ही परिनिर्वाण को प्राप्त हुये थे। मुख्य रूप से तो द्रव्यानुयोग और चरणकरणानुयोग से सम्बन्धित वर्णन है। प्रत्येक अध्ययन की एक ही संख्या के लिए स्थान शब्द व्यवहृत हुआ है। आचार्य श्री अभयदेव ने स्थान के साथ अध्ययन भी कहा है। अन्य अध्ययनों की अपेक्षा आकार की दृष्टि से यह अध्ययन छोटा है। बीज रूप से जिन विषयों का संकेत इस स्थान में किया गया है, उनका विस्तार अगले स्थानों में उपलब्ध है। आधार की 1. कल्पसूत्र, सूत्र २०६ से २१६ तक -देवेन्द्रमुनि 2. णाणुप्पत्तीए दुवे उप्पण्णा णिव्वुए सेसा। -आवश्यकनियुक्ति, गाथा ७८४ , 3. चोद्दस सोलहसवासा, चोइस वीसुत्तरा य दोण्णि सया । अट्ठावीसा य दुवे, पंचेव सया उ चोयाला। -आवश्यकनियुक्ति, गाथा ७८३-७८४ 4. तत्र च दशाध्ययनानि। -स्थानाङ्ग वृत्ति, पत्र ३ - xxvii
SR No.005768
Book TitleSthanang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages484
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & agam_sthanang
File Size12 MB
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