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________________ श्री स्थानाङ्ग सूत्र प्रस्तावना है। 'उपदेशमाला' में स्थान का अर्थ "मान" अर्थात् परिमाण दिया है। प्रस्तुत आगम में तत्त्वों के एक से लेकर दश तक संख्या वाले पदार्थों का उल्लेख है, अतः इसे 'स्थान' कहा गया है। स्थान शब्द का दूसरा अर्थ "उपयुक्त " भी है। इसमें तत्त्वों का क्रम से उपयुक्त चुनाव किया गया है। स्थान शब्द का तृतीय अर्थ "विश्रान्तिस्थल " भी है, और अंग का सामान्य अर्थ "विभाग" से है। इसमें संख्याक्रम से जीव, पुद्गल आदि की स्थापना की गयी है। अतः इस का नाम 'स्थान' या 'स्थानाङ्ग" है। आचार्य गुणधर ने स्थानाङ्ग का परिचय प्रदान करते हुए लिखा है कि स्थानान में संग्रहनय की दृष्टि से जीव की एकता का निरूपण है, तो व्यवहार नय की दृष्टि से उसकी भिन्नता का भी प्रतिपादन किया गया है। संग्रहनय की अपेक्षा चैतन्य गुण की दृष्टि से जीव एक है। व्यवहार नय की दृष्टि से प्रत्येक जीव अलग-अलग है। ज्ञान और दर्शन की दृष्टि से वह भागों में विभक्त है। इस तरह स्थानाङ्ग सूत्र में संख्या की दृष्टि से जीव, अजीव प्रभृति द्रव्यों की स्थापना की गयी है। पर्याय की दृष्टि से एक तत्त्व अनन्त भागों में विभक्त होता है और द्रव्य से वे अनन्त भाग एक तत्त्व में परिणत हो जाते हैं। इस प्रकार भेद और अभेद की दृष्टि से व्याख्या स्थानाङ्ग में है। स्थानाङ्ग और समवायाङ्ग इन दोनों आगमों में विषय को प्रधानता न देकर संख्या को प्रधानता दी गयी है। संख्या के आधार पर विषय का संकलन- आकलन किया गया है। एक विषय की दूसरे विषय के साथ इसमें संबन्ध की अन्वेषणा नहीं की जा सकती। जीव, पुद्गल, इतिहास, गणित, भूगोल, खगोल, दर्शन, आचार, मनोविज्ञान आदि शताधिक विषय बिना किसी क्रम के इसमें संकलित किये गये हैं। प्रत्येक विषय पर विस्तार से चिन्तन न कर संख्या की दृष्टि से आकलन किया गया है। प्रस्तुत आगम में अनेक ऐतिहासिक सत्य कथ्य रहे हुए हैं। यह एक प्रकार से कोश की शैली में ग्रथित आगम है, जो स्मरण करने की दृष्टि से बहुत ही उपयोगी है । जिस युग में आगम-लेखन की परम्परा नहीं थी, संभवतः उस समय कण्ठस्थ रखने की सुविधा के लिए यह 'शैली अपनायी गयी है। यह शैली जैन परम्परा के आगमों में ही नहीं वैदिक और बौद्ध परम्परा के ग्रन्थों में भी प्राप्त होती है। महाभारत के वचनपर्व, अध्याय एक सौ चौतीस में भी इसी शैली में विचार प्रस्तुत किये गये हैं। बौद्ध ग्रन्थ अंगुत्तरनिकाय, पुग्गलपञ्ञति, महाव्युत्पत्ति एवं धर्मसंग्रह में यही शैली दृष्टि गोचर होती है। जैन आगम साहित्य में तीन प्रकार के स्थविर बताये हैं। उसमें श्रुतस्थविर के लिए 'ठाण - समवायधरे' यह विशेषण आया है। इस विशेषण से यह स्पष्ट है कि प्रस्तुत आगम का कितना अधिक महत्त्व रहा है। 2 आचार्य अभयदेव ने स्थानाङ्ग की वाचना कब लेनी चाहिए, इस सम्बन्ध में लिखा है कि दीक्षा - पर्याय की दृष्टि से आठवें वर्ष में स्थानाङ्ग की वाचना देनी चाहिए। यदि आठवें वर्ष से पहले कोई वाचना देता है तो उसे आज्ञा भंग आदि दोष लगते हैं। 3 व्यवहारसूत्र के अनुसार स्थानाङ्ग और समवायांग के ज्ञाता को ही आचार्य, उपाध्याय और गणावच्छेदक पद देने का विधान है। इसलिए इस अंग का कितना गहरा महत्त्व रहा हुआ है, यह इस विधान से स्पष्ट है। 4 समवायांग और नन्दीसूत्र में स्थानाङ्ग का परिचय दिया गया है। नन्दीसूत्र में स्थानाङ्ग की जो विषयसूची आई है, वह समवायाङ्ग की अपेक्षा संक्षिप्त है। समवायाङ्ग अङ्ग होने के कारण नन्दीसूत्र से बहुत प्राचीन है, 1. एक्को चेव महप्पा सो दुवियप्पो तिलक्खणो भणिओ । चतुसंकमणाजुत्तो पंचग्गुणप्पहाणो य ।। छक्कायक्कमजुत्तो उवजुतो सत्तभंगिसब्भावो । अट्ठासवो वट्टो जीवो दसट्टाणिओ भणिओ ।। - कसायपाहुड, भाग-१, पृ. ११३/६४, ६५ 2. ववहारसुत्तं सूत्र १८, पृ. १७ - मुनि कन्हैयालाल 'कमल' 3. ठाणं समवाओऽवि य अंगे ते अट्टवासस्स - अन्यथा दानेऽस्याज्ञाभङ्गादयो दोषाः - स्थानाङ्ग टीका 4. ठाण - समवायधरे कप्पइ आयरित्ताए उवज्झायत्ताए गणावच्छेइयत्ताए उद्दिसित्तए । व्यवहारसूत्र, उ. ३, सू. ६८ XXV
SR No.005768
Book TitleSthanang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages484
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & agam_sthanang
File Size12 MB
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