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श्री स्थानाङ्ग सूत्र
प्रस्तावना प्रचलित था। उसमें प्रत्येक सूत्र का चरणकरण, धर्मकथा, गणित और द्रव्य दृष्टि से विश्लेषण किया गया था। यह व्याख्या अत्यन्त ही जटिल थी। इस व्याख्या के लिए प्रकृष्ट प्रतिभा की आवश्यकता होती थी। आर्य रक्षित ने देखा-महामेधावी दुर्बलिका पुष्यमित्र जैसे प्रतिभासम्पन्न शिष्य भी उसे स्मरण नहीं रख पा रहे हैं, तो मन्दबुद्धि वाले श्रमण उसे कैसे स्मरण रख सकेंगे। उन्होंने पृथक्त्वानुयोग का प्रवर्तन किया, जिससे चरण-करण प्रभृति विषयों की दृष्टि से आगमों को विभाजन हुआ।' जिनदासगणि महत्तर ने लिखा है कि अपृथक्त्वानुयोग के काल में प्रत्येक सूत्र का विवेचन चरण-करण आदि चार अनुयोगों तथा ७०० नयों में किया जाता था। पृथक्त्वानुयोग के काल में चारों अनुयोगों की व्याख्या पृथक्-पृथक् की जाने लगी।
नन्दीसूत्र में आगम साहित्य को अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य, इन दो भागों में विभक्त किया है। अंगबाह्य के आवश्यक, आवश्यकव्यतिरिक्त, कालिक, उत्कालिक आदि अनेक भेद-प्रभेद किये हैं। दिगम्बर परम्परा के तत्त्वार्थसूत्र की श्रुतसागरीय वृत्ति में भी अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य ये दो आगम के भेद किये हैं। अंगबाह्य आगमों की सूची में श्वेताम्बर और दिगम्बर में मतभेद हैं। किन्तु दोनों ही परम्पराओं में अंगप्रविष्ट के नाम एक सदृश मिलते हैं, जो प्रचलित हैं।
___ श्वेताम्बर, दिगम्बर, स्थानकवासी, तेरापंथी सभी अंगसाहित्य को मूलभूत आगमग्रन्थ मानते हैं, और सभी की दृष्टि से दृष्टिवाद का सर्वप्रथम विच्छेद हुआ है। यह पूर्ण सत्य है कि जैन आगम साहित्य चिन्तन की गम्भीरता को लिए हुए है। तत्त्वज्ञान का सूक्ष्म व गहन विश्लेषण उसमें हैं। पाश्चात्त्य चिन्तक डॉ. हर्मन जेकोबी ने अंगशास्त्र की प्रामाणिकता के सम्बन्ध में पर्याप्त प्रकाश डाला है। वे अंगशास्त्र को वस्तुतः जैनश्रुत मानते हैं, उसी के आधार पर उन्होंने जैनधर्म की प्राचीनता सिद्ध करने का प्रयास किया है, और वे उसमें सफल भी हुए हैं।
'जैन आगम साहित्य-मनन और मीमांसा' ग्रन्थ में मैंने बहत विस्तार के साथ आगम-साहित्य के हरपहल पर चिन्तन किया है। विस्तारभय से उन सभी विषयों पर चिन्तन न कर उस ग्रन्थ को देखने का सूचन करता हैं। यहाँ अब हम स्थानांगसत्र के समबन्ध में चिन्तन करेंगे। स्थानाङ्ग स्वरूप और परिचय
द्वादशांगी में स्थानांग का तृतीय स्थान है। यह शब्द 'स्थान' और 'अंग' इन शब्दों के मेल से निर्मित हुआ है। 'स्थान' शब्द अनेकार्थी है। आचार्य देववाचक ने और गुणधर' ने लिखा है कि प्रस्तुत आगम में एक स्थान से लेकर दश स्थान तक जीव और पुद्गल के विविध भाव वर्णित हैं, इसलिए इसका नाम 'स्थान' रखा गया है। जिनदास गणि महत्तर ने लिखा है-जिसका स्वरूप स्थापित किया जाय व ज्ञापित किया जाय वह स्थान है। आचार्य हरिभद्र सूरिजी ने कहा है जिसमें जीवादि का व्यवस्थित रूप से प्रतिपादन किया जाता है, वह स्थान 1. अपुहुत्ते अणुओगो चत्तारि दुवार भासई एगो । पहुत्ताणुओगकरणे ते अत्था तवो उ वुच्छिन्ना ।। देविंदवंदिएहिं महाणभावेहिं रक्खिअ अज्जेहिं । जुगमासज्ज विहत्तो अणुओगो ता कओ चउहा ।। -आवश्यकनियुक्ति, गाथा ७७३-७७४ 2. जत्थ एते चत्तारि अणुयोगा पिहप्पिह वक्खाणिज्जति पहुत्ताणुयोगो, अपुहुत्ताणुजोगो पुण जं एक्कक्कं सुत्तं एतेहिं चउहिं वि अणुयोगेहिं सत्तहिं णयसतेहिं वक्खाणिज्जति। -सूत्रकृताङ्गचूर्णि, पत्र-४ 3. तं समासओ दुविहं पण्णत्तं, तंजहा-अंगपविढं अंगबाहिरं च। - नन्दीसूत्र, सूत्र ७७ 4. तत्त्वार्थसूत्र, श्रुतसागरीय वृत्ति १/२० 5. जैनसूत्राज्-भाग १, प्रस्तावना, पृष्ठ ९ 6. ठाणेणं एगाइयाए एगुत्तरियाए वुड्डीए दसट्ठाणगविवतियाणं भावाणं परूवणा आघविज्जति। -नन्दीसूत्र, सूत्र ८२ 7. ठाणं णाम जीवपुद्गलादीणामेगादिएगुत्तरकमेण ठाणाणि वण्णेदि। -कसायपाहुड, भाग १, पृ. १२३ 8. 'ठाविज्जति त्ति स्वरूपतः स्थाप्यते प्रज्ञाप्यत इत्यर्थः।' -नन्दीसूत्रचूर्णि, पृ. ६४ 9. तिष्ठिन्त्यस्मिन् प्रतिपाद्यतया जीवादय इति स्थानम्....स्थानेन स्थाने वा जीवाः स्थाप्यन्ते. व्यवस्थितस्वरूपप्रतिपादनयेति हृदयम्। -नन्दीसूत्र हरिभद्रीया वृत्ति, पृ. ७९
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