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श्री स्थानाङ्ग सूत्र
प्रस्तावना
सकते थे। फिर क्यों नहीं गये? उत्तर में कहा जा सकता है-उत्तर भारत और पश्चिम भारत के श्रमण संघ में किन्हीं कारणों से मतभेद रहा हो, उनका मथुरा की वाचना को समर्थन न रहा हो। उस वाचना की गतिविधि और कार्यक्रम की पद्धति व नेतृत्व में श्रमणसंघ सहमत न हो। यह भी संभव है कि माथुरी वाचना पूर्ण होने के बाद इस वाचना का प्रारम्भ हुआ हो। उनके अन्तर्मानस में यह विचार-लहरियाँ तरंगित हो रही हों कि मथुरा में आगम-संकलन का जो कार्य हुआ है, उससे हम अधिक श्रेष्ठतम कार्य करेंगे। संभव है इसी भावना से उत्प्रेरित होकर कालिक श्रुत के अतिरिक्त भी अंगबाह्य व प्रकरणग्रन्थों का संकलन और आकलन किया गया हो। या सविस्तृत पाठ वाले स्थल अर्थ की दृष्टि से सुव्यवस्थित किये गये हों।
इस प्रकार अन्य भी अनेक संभावनाएं की जा सकती है। पर उनका निश्चित आधार नहीं है। यही कारण है कि माथुरी और वल्लभी वाचनाओं में कई स्थानों पर मतभेद हो गये। यदि दोनों श्रतधर आचार्य परस्पर मिल कर विचार-विमर्श करते तो संभवतः वाचनाभेद मिटता। किन्तु परिताप है कि न वे वाचना के पूर्व मिले और न बाद में ही मिले। वाचनाभेद उनके स्वर्गस्थ होने के बाद भी बना रहा, जिससे वृत्तिकारों को 'नागार्जुनीया पुनः एवं पठन्ति' आदि वाक्यों का निर्देश करना पड़ा। पञ्चम वाचना
वीर-निर्वाण की दशवीं शताब्दी (९८० या ९९३ ई. सन् ४५४-४६६) में देवर्द्धिगणि श्रमाश्रमण की अध्यक्षता में पुनः श्रमण-संघ एकत्रित हुआ। स्कन्दिल और नागार्जुन के पश्चात् दुष्काल ने हृदय को कम्पा देने वाले नाखूनी पंजे फैलाये। अनेक श्रुतधर श्रमण काल-कवलित हो गये। श्रुत की महान् क्षति हुयी। दुष्काल परिसमाप्ति के बाद वल्लभी में पुनः जैन संघ सम्मिलित हुआ। देवर्द्धिगणि ग्यारह अंग और एक पूर्व से भी अधिक श्रुत के ज्ञाता थे। श्रमण-सम्मेलन में त्रुटित और अत्रुटित सभी आगमपाठों का स्मृति-सहयोग से संकलन हुआ। श्रुत को स्थायी रूप प्रदान करने के लिए उसे पुस्तकारूढ किया गया। आगम-लेखन का कार्य,आर्यरक्षित के युग में अंश रूप से प्रारम्भ हो गया था। अनुयोगद्वार में द्रव्यश्रुत और भावश्रुत का उल्लेख है। पुस्तक लिखित श्रुत को द्रव्यश्रुत माना गया है।
___आर्य श्री स्कन्दिल और श्री नागार्जुन के समय में भी आगमों को लिपिबद्ध किया गया था, ऐसा उल्लेख मिलता है। किन्तु देवर्द्धिगणि के कुशल नेतृत्व में आगमों का व्यवस्थित संकलन और लिपिकरण हुआ है, इसलिए आगम-लेखन का श्रेय देवर्द्धिगणि को प्राप्त है। इस सन्दर्भ में एक प्रसिद्ध गाथा है कि वल्लभी नगरी में देवर्द्धिगणि प्रमुख श्रमण संघ ने वीर निर्वाण ९८० में आगमों को पुस्तकारूढ किया था।
श्री देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण के समक्ष स्कन्दिली और नागार्जुनीय ये दोनों वाचनाएँ थीं, नागार्जुनीय वाचना के प्रतिनिधि आचार्य कालक (चतुर्थ) थे। स्कन्दिली वाचना के प्रतिनिधि स्वयं देवर्द्धिगणि थे। हम पूर्व लिख चुके हैं आर्य स्कन्दिल और आर्य नागार्जुन दोनों का मिलन न होने से दोनों वाचनाओं में कुछ भेद था। श्री देवर्द्धिगणि ने श्रुतसंकलन का कार्य बहुत ही तटस्थ नीति से किया। आचार्य स्कन्दिल की वाचना को प्रमुखता देकर 1. से किं तं.....दव्वसुअं? पत्तयपोत्थयलिहिअं -अनुयोगद्वार सूत्र 2. जिनवचनं च दुष्षमाकालवशादुच्छिन्नप्रायमिति मत्वा
भगवद्भिर्नागार्जुनस्कन्दिलाचार्य्यप्रभृतिभिः पुस्तकेषु न्यस्तम्। -योगशास्त्र, प्रकाश ३, पत्र २०७ 3. वलहीपुरम्मि नयरे, देवडिपमुहेण समणसंघेण । पुत्थइ आगमु लिहियो नवसय असीआओ विराओ। 4. परोप्परमसंपण्णमेलावा य तस्समयाओ खंदिल्लनागज्जुणायरिया. कालं काउं देवलोगं गया। तेण तुल्लयाए वि तहुधरियसिद्धताणं जो संजाओ कथम (कहमवि) वायणा भेओ सो य न चालिओ पच्छिमेहि। -कहावली-२९८
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