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प्रस्तावना
श्री स्थानाङ्ग सूत्र ___ . नन्दीसूत्र की चूर्णि और श्री मलयगिरि वृत्ति के अनुसार यह माना जाता है कि दुर्भिक्ष के समय श्रुतज्ञान कुछ भी नष्ट नहीं हुआ था। केवल आचार्य श्री स्कन्दिल के अतिरिक्त शेष अनुयोगधर श्रमण स्वर्गस्थ हो गये थे। एतदर्थ आचार्य श्री स्कन्दिल ने पुनः अनुयोग का प्रवर्तन किया, जिससे सम्पूर्ण अनुयोग स्कन्दिल-सम्बन्धी माना गया। चतुर्थ वाचना ___जिस समय उत्तर-पूर्व और मध्य भारत में विचरण करने वाले श्रमणों का सम्मेलन मथुरा में हुआ था, उसी समय दक्षिण और पश्चिम में विचरण करने वाले श्रमणों की एक वाचना वीरनिर्वाण संवत् ८२७ से ८४० के आस-पास वल्लभी में आचार्य नागार्जुन की अध्यक्षता में सम्पन्न हुई। इसे 'वल्लभीवाचना' या 'नागार्जुनीयवाचना' की संज्ञा मिली। इस वाचना का उल्लेख भद्रेश्वर रचित कहावली ग्रन्थ में मिलता है, वे आचार्य श्री हरिभद्रसूरिजी के बाद हुए। स्मृति के आधार पर सत्र-संकलना होने के कारण वाचनाभेद रह जाना स्वाभाविक था। पण्डित दलसुख मालवणिया ने प्रस्तुत वाचना के सम्बन्ध में लिखा है "कुछ चूर्णियों में नागार्जुन के नाम से पाठान्तर मिलते हैं। पण्णवणा जैसे अंगबाह्य सूत्र में भी पाठान्तर का निर्देश है। अतएव अनुमान किया गया कि नागार्जुन ने भी वाचना की होगी। किन्तु इतना तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि मौजूदा अंग आगम माथुरीवाचनानुसारी हैं, यह तथ्य है। अन्यथा पाठान्तरों में स्कन्दिल के पाठान्तरों का भी निर्देश मिलता। अंग और अन्य अंगबाह्य ग्रन्थों की व्यक्तिगत रूप से कई वाचनाएँ होनी चाहिए थी। क्योंकि आचारांग आदि आगम साहित्य की चूर्णियों में जो पाठ मिलते हैं उनसे भिन्न पाठ टीकाओं में अनेक स्थानों पर मिलते हैं। जिससे यह तो सिद्ध है कि पाटलीपुत्र की वाचना के पश्चात् समय-समय पर मूर्धन्य मनीषी आचार्यों के द्वारा वाचनाएँ होती रही हैं। उदाहरण के रूप में हम प्रश्नव्याकरण को ले सकते हैं। समवायाङ्ग में प्रश्नव्याकरण का जो परिचय दिया गया है, वर्तमान में उसका वह स्वरूप नहीं है। आचार्य श्री अभयदेव ने प्रश्नव्याकरण की टीका में लिखा है कि अतीत काल में वे सारी विद्याएँ इसमें थी। इसी तरह अन्तकृत्दशा में भी दश अध्ययन नहीं है। टीकाकार ने स्पष्टीकरण में यह सूचित किया है कि प्रथम वर्ग में दश अध्ययन हैं। पर यह निश्चित है कि क्षत-विक्षत आगम-निधि का ठीक समय पर संकलनकर आचार्य श्री नागार्जुन ने जैन शासन पर महान् उपकार किया है। इसलिए आचार्य श्री देववाचक ने बहुत ही भावपूर्ण शब्दों में श्री नागार्जुन की स्तुति करते हुए लिखा है-मृदुता आदि गुणों से सम्पन्न, सामायिक श्रुतादि के ग्रहण से अथवा परम्परा से विकास की भूमिका पर क्रमशः आरोहणपूर्वक वाचकपद को प्राप्त ओघश्रुतसमाचारी में कुशल आचार्य श्री नागार्जुन को मैं प्रणाम करता हूँ।
दोनों वाचनाओं का समय लगभग समान है। इसलिए सहज ही यह प्रश्न उबुद्ध होता है कि एक ही समय में दो भिन्न-भिन्न स्थानों पर वाचनाएँ क्यों आयोजित की गई? जो श्रमण वल्लभी में एकत्र हुए थे वे मथुरा भी जा 1. जैन दर्शन का आदिकाल, पृ.७ - पं. दलसुख मालवणिया। 2. इह हि स्कन्दिलाचार्यप्रवृत्तौ दुष्षमानुभावतो दुर्भिक्षप्रवृत्या साधूनां
पठनगुणनादिकं सर्वमप्यनेशत्। ततो दुर्भिक्षातिक्रमे सुभिक्षप्रवृत्तौ द्वयोः संघयोर्मेलापकोऽभवत्। तद्यथा एको वल्लभ्यामेको मथुरायाम्। तत्र सूत्रार्थसंघटने परस्परवाचनाभेदो जातः। विस्मृतयोर्हि सूत्रार्थयोः संघटने भवत्यवश्यवाचनाभेदो न काचिदनुपपत्तिः। -ज्योतिष्करण्डक टीका 3. जैन दर्शन का आदिकाल, पृ. ७ 4. वीरनिर्वाण संवत् और जैन कालगणना, पृ. ११४ -गणिकल्याणविजय 5. जैन दर्शन का आदिकाल, पृ.७ 6. जैन आगम साहित्य मनन और मीमांसा, पृ. १७० से १८५ -देवन्द्रमुनि, प्र.-श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय, उदयपुर 7. अन्तकृद्दशा, प्रस्तावना-पृ. २१ से २४ तक 8. (क) मिउमद्दवसंपण्णे अणुपुब्विं वायगत्तणं पत्ते। ओहसुयसमायारे णागज्जुवायए वंदे ।। -नन्दीसूत्र-गाथा ३५ (ख) लाइफ इन ऐश्वेंट इंडिया एज डेपिक्टेड इन द जैन कैनन्स-पृष्ठ ३२-३३ -(ला. इन. ए.इ.) डा. जगदीशचन्द्र जैन बम्बई, १९४७ (ग) योगशास्त्र प्र. ३, पृ. २०७
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