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प्रस्तावनां
श्री स्थानाङ्ग सूत्र
तृतीय वाचना
आगमों को संकलित करने का तृतीय प्रयास वीर - निर्वाण ८२७ से ८४० के मध्य हुआ । वीर निर्वाण की नवमी शताब्दी में पुनः द्वादशवर्षीय दुष्काल से श्रुत-विनाश का भीषण आघात जैन शासन को लगा । श्रमणजीवन की मर्यादा के अनुकूल आहार की प्राप्ति अत्यन्त कठिन हो गयी । बहुत-से श्रुतसम्पन्न श्रमण काल के अंक में समा गये। सूत्रार्थग्रहण, परावर्त्तन के अभाव में श्रुत-सरिता सूखने लगी । अति विषम स्थिति थी। बहुत सारे मुनि सुदूर प्रदेशों में विहरण करने के लिए प्रस्थित हो चुके थे।
दुष्काल की परिसमाप्ति के पश्चात् मथुरा में श्रमणसम्मेलन हुआ । प्रस्तुत सम्मेलन का नेतृत्व आचार्य स्कन्दिल ने संभाला। श्रुतसम्पन्न श्रमणों की उपस्थिति से सम्मेलन में चार चाँद लग गये। प्रस्तुत सम्मेलन में श्री मधुमित्र, श्री गन्धहस्ती, प्रभृति १५० श्रमण उपस्थित थे। श्री मधुमित्र और श्री स्कन्दिल ये दोनों आचार्य आचार्य सिंह के शिष्य थे। आचार्य श्री गन्धहस्ती श्री मधुमित्र के शिष्य थे। इनका वैदुष्य उत्कृष्ट था। अनेक विद्वान् श्रमणों के स्मृतपाठों के आधार पर आगम श्रुत का संकलन हुआ था । आचार्य श्री स्कन्दिल की प्रेरणा से श्री गन्धहस्ती ने ग्यारह अंगों का विवरण लिखा । मथुरा के ओसवाल वंशज सुश्रावक ओसालक ने श्री गन्धहस्ती - विवरण सहित सूत्रों को ताड़पत्र पर उट्टकित करवाकर निर्ग्रन्थों को समर्पित किया। आचार्य श्री गन्धहस्ती को ब्रह्मदीपिक शाखा में मुकुटमणि माना गया है।
प्रभावकचरित के अनुसार आचार्य श्री स्कन्दिल जैन शासन रूपी नन्दनवन में कल्पवृक्ष के समान थे। समग्र श्रुतानुयोग को अंकुरित करने में महामेघ के समान थे। चिन्तामणि के समान वे इष्टवस्तु के प्रदाता थे। 2 यह आगमवाचना मथुरा में होने से माथुरी वाचना कहलायी । आचार्य श्री स्कन्दिल की अध्यक्षता में होने से स्कन्दिली वाचना के नाम से इसे अभिहित किया गया। श्री जिनदास गणी महत्तर ने यह भी लिखा है कि दुष्काल के क्रूर आपत्ति से अनुयोगधर मुनियों में केवल एक श्री स्कन्दिल ही बच पाये थे। उन्होंने मथुरा में अनुयोग का प्रवर्तन किया था । अतः यह वाचना स्कन्दिली नाम से विश्रुत हुई ।
प्रस्तुत वाचना में भी पाटलिपुत्र की वाचना की तरह केवल अंगसूत्रों की ही वाचना हुई। क्योंकि नन्दीसूत्र की चूर्णि में अंगसूत्रों के लिए कालिक शब्द व्यवहृत हुआ है। अंगबाह्य आगमों की वाचना या संकलना का इस समय भी प्रयास हुआ हो, ऐसा पुष्ट प्रमाण नहीं है । पाटलिपुत्र में जो अंगों की वाचना हुई थी उसे ही पुनः व्यवस्थित करने का प्रयास किया गया था। नन्दीसूत्र के अनुसार वर्तमान में जो आगम विद्यमान हैं वे माथुरी वाचना के अनुसार हैं। पहले जो वाचना हुई थी, वह पाटलिपुत्र में हुई थी, जो बिहार में था । उस समय बिहार जैनों का केन्द्र रहा था । किन्तु माथुरी वाचना के समय बिहार से हटकर उत्तरप्रदेश केन्द्र हो गया था । मथुरा ही कुछ श्रमण दक्षिण की ओर आगे बढ़े थे। जिसका सूचन हमें दक्षिण में विश्रुत माथुरी संघ के अस्तित्व से प्राप्त होता है।
1. इत्थ दूसहदुब्भिक्खे दुवालसवारिसिए नियत्ते सयलसंघ मेलिअ आगमाणुओगो पवत्तिओ खंदिलायरियेण । – विविध तीर्थकल्प, पृ. १९ 2. पारिजातोऽपारिजातो जैनशासननन्दने । सर्वश्रुतानुयोगद्द्रु-कन्दकन्दलनाम्बुदः ।। विद्याधरवराम्नाये चिन्तामणिरिवेष्टदः । आसीच्छ्रीस्कन्दिलाचार्यः पादलितप्रभोः कुले ॥ प्रभावकचरित, पृ. ५४ 3. अण्णे भांति जहा सुत्तं ण णट्टं, तम्मि दुब्भिक्खकाले
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अणे पहाणा अणुओगधरा ते विणट्ठा, एगे खंदिलायरिए संथरे, तेण मथुराए अणुओगो पुणो साधुणं पवत्तितो त्ति मथुरा वायणा भण्णति । नन्दी चूर्णि, गा. ३२, पृ. ९ 4. अहवा कालियं आयारादि सुत्तं तदुवदेसेणं सण्णी भण्णति । - नन्दीचूर्णि, गा. ३२, पृ. ९ 5. जेसि इमो अणुओगो, पयरइ अज्जावि अड्डभरहम्मि । बहुनगरनिग्गयजसो ते वंदे खंदिलायरिए । । - नन्दीसूत्र, गा.. ३२ 6. ( क ) नन्दीचूर्णि, पृ. ९ (ख) नन्दीसूत्र, गा. ३३, मलयगिरि वृत्ति - पृ. ५९
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