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श्री प्रज्ञापना सूत्र भाग १
हुए हैं। आचार्य श्री मलयगिरिजी' ने भी अपनी वृत्ति में चूर्णि का उल्लेख किया है। यहाँ यह जिज्ञासा हो सकती है कि अवचूर्णि या चूर्णि का रचयिता कौन था ? मुनिश्री पुण्यविजयजी महाराज का अभिमत है कि चूर्णि के रचयिता आचार्य श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी के गुरु ही होने चाहिए, क्योंकि व्याख्या में ये शब्द प्रयुक्त हुए हैं - ' एवं तावत् पूज्यपादा व्याचक्षते', 'गुरवस्तु', 'इह तु पूज्याः ', ' अत्र गुरवो व्याचक्षते । पुण्यविजयजी महाराज का यह भी मन्तव्य है कि प्रज्ञापना पर आचार्य श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी के गुरु जिनभट्ट के अतिरिक्त अन्य आचार्यों की व्याख्याएँ भी होनी चाहिए।' पर उपलब्ध नहीं होने से इसका क्या रूप था, यह नहीं कहा जा सकता।
प्रज्ञापना पर वर्तमान में जो टीकाएँ उपलब्ध हैं उनमें सर्वप्रथम आचार्य श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी की प्रदेशव्याख्या है। श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी जैन आगमों के प्राचीन टीकाकार हैं। उन्होंने आवश्यक, दशवैकालिक, जीवाजीवाभिगम, नन्दी, अनुयोगद्वार, पिण्डनिर्युक्ति प्रभृति पर महत्त्वपूर्ण टीकाएं लिखी हैं। प्रज्ञापना की टीका में सर्वप्रथम जैनप्रवचन की महिमा गायी है। उसके पश्चात् मंगल का विश्लेषण किया है और साथ में यह भी सूचित किया है कि मंगल की विशेष व्याख्या आवश्यक टीका में की गयी है। भव्य - अभव्य का विवेचन करते हुए आचार्य श्री ने वादिमुख्य कृत अभव्य-स्वभाव के सूचक श्लोक को भी उद्धृत किया है।"
प्रज्ञापना पर दूसरी वृत्ति नवांगी टीकाकार आचार्य श्री अभयदेवसूरीश्वरजी की है। पर यह वृत्ति सम्पूर्ण प्रज्ञापना पर नहीं है केवल प्रज्ञापना के तीसरे पद - जीवों के अल्पबहुत्व - पर है। आचार्यश्री ने १३३ गाथाओं के द्वारा इस पद पर प्रकाश डाला है। स्वयं आचार्यश्री ने उसे 'संग्रह' की अभिधा प्रदान की है। यह व्याख्या धर्मरत्नसंग्रहणी और प्रज्ञापनोद्धार नाम से भी विश्रुत है।
इस संग्रहणी पर कुलमण्डनगणी ने संवत् १४४१ में एक अवचूर्णि का निर्माण किया है। आत्मानन्द जैन सभा भावनगर से प्रज्ञापना तृतीय पद संग्रहणी पर एक अवचूर्णि प्रकाशित हुई है। पर उस अवचूर्णि के रचयिता का नाम ज्ञात नहीं है। यह अवचूर्णि कुलमण्डनगणी विरचित अवचूर्णि से कुछ विस्तृत है। श्री पुण्यविजयजी महाराज का यह अभिमत है कि कुलमण्डनकृत अवचूर्णि को ही अधिक स्पष्ट करने के लिए किसी विज्ञ ने इसकी रचना की है।
प्रज्ञापना पर विस्तृत व्याख्या आचार्य श्री मलयगिरिजी की है। आचार्य श्री मलयगिरिजी सुप्रसिद्ध टीकाकार हैं। उनकी टीकाओं में विषय की विशदता, भाषा की प्रांजलता, शैली की प्रौढ़ता एक साथ देखी जा सकती है। कहा जाता है कि उन्होंने छब्बीस ग्रन्थों पर वृत्तियाँ लिखी हैं, उनमें से बीस ग्रन्थ ही उपलब्ध हैं। आचार्य श्री मलयगिरिजी ने स्वतन्त्र ग्रन्थ न लिखकर टीकाएँ ही लिखी हैं पर उनकी टीकाओं में प्रकाण्ड पाण्डित्य मुखरित हुआ है। वे सर्वप्रथम मूल सूत्र के शब्दार्थ की व्याख्या करते हैं, अर्थ का स्पष्ट निर्देश करते हैं, उसके पश्चात् विस्तृत विवेचन करते हैं। विषय से सम्बन्धित प्रासंगिक विषयों को भी वे छूते चले जाते हैं। विषय को प्रामाणिक बनाने के लिए प्राचीन ग्रन्थों के उद्धरण भी देते हैं। प्रज्ञापनावृत्ति उनकी महत्त्वपूर्ण वृत्ति है। यह वृत्ति आचार्य श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी की प्रदेशव्याख्या से चार गुणी अधिक विस्तृत है। प्रज्ञापना के गुरु गम्भीर रहस्यों को समझने के लिए यह वृत्ति अत्यन्त उपयोगी है । वृत्ति के प्रारम्भ में आचार्यश्री ने मंगलसूचक चार श्लोक दिये हैं। प्रथम श्लोक में भगवान् महावीर की स्तुति है, द्वितीय में जिनप्रवचन को नमस्कार किया गया है, तृतीय श्लोक में गुरु
१. प्रज्ञापना मलयगिरि वृत्ति, पत्र २६९ - २७१; २. प्रज्ञापना, प्रस्तावना पृ. १५२; ३. शगादिवध्यपटः सुरलोकसेतुरानन्ददुन्दुभिरसत्कृतिवंचितानाम् । संसारचारकपलायनफालघंटा, जैनं वचस्तदिह को न भजेत विद्वान् ॥१॥ - प्रज्ञापना प्रदेशव्याख्या; ४. सद्धर्म्मवीजवपनानघकौशलस्य, यल्लोकबान्धव! तवापि खिलान्यभूवन् । तन्नाद्भतं खगकुलेष्विह तामसेषु, सूर्यांशवो मधुकरीचरणावदाताः ||१|| - प्रज्ञापना प्रदेशव्याख्या
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