SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री प्रज्ञापना सूत्र भाग १ की है। उनसे अधिक जीव ऐसे हैं जो समुद्घात नहीं करते। इसी तरह दण्डकों के सम्बन्ध में भी अल्पबहुत्व की दृष्टि से चिन्तन किया है। कषायसमुद्घात के चार प्रकार किये गये हैं और दण्डकों के आधार पर विचार किय गया है। पूर्व के छहों समुद्घात छाद्मस्थिक हैं। इन समुद्घातों में अवगाहना और स्पर्श कितने होते हैं तथा कितने काल तक ये रहते हैं? समुद्घात के समय जीव की कितनी क्रियाएँ होती हैं? इन सभी प्रश्नों पर विचार किया है। केवलिसमुद्घात के सम्बन्ध में विस्तार से चर्चा है। केवलिसमुद्घात करने के पूर्व एक विशेष क्रिया होती है जो शुभ योग रूप है। उसकी स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। उसका कार्य है उदयावलिका में कर्मदलिकों का निक्षेप करना। यह क्रिया आवर्जीकरण कहलाती है। मोक्ष की ओर आत्मा आवर्जित यानी झुकी हुई होने से इसे आवर्जितकरण भी कहते हैं। केवलज्ञानियों के द्वारा अवश्य किये जाने के कारण इसे आवश्यककरण भी कहते हैं। विशेषावश्यकभाष्य, पंचसंग्रह आदि में ये तीनों नाम प्राप्त होते हैं। दिगम्बर परम्परा के साहित्य में केवल आवर्जितकरण नाम ही मिलता जब वेदनीय, नाम और गोत्र कर्म की स्थिति और दलिक आयुकर्म की स्थिति और दलिकों से अधिक हों तब उन सभी को बराबर करने के लिए केवलिसमुद्घात होता है। अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आयु अवशेष रहने पर यह समुद्घात होता है। केवलिसमुद्घात का कालप्रमाण आठ समय का है। प्रथम समय में आत्मा के प्रदेशों को शरीर से बाहर निकाला जाता है। उस समय उनका आकार दण्ड सदृश होता है। आत्मप्रदेशों का यह दण्डरूप ऊँचाई में लोक के रूपर से नीचे तक अर्थात् चौदह रज्जु लम्बा होता है। उसकी मोटाई केवल स्वयं के शरीर के बराबर होती है। दूसरे समय में उस दण्ड को पूर्व, पश्चिम या उत्तर, दक्षिण में विस्तीर्ण कर उसका आकार कपाट के सदृश बनाया जाता है। तृतीय समय में कपाट के आकार के आत्मप्रदेशों को मंथाकार बनाया जाता है अर्थात् पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण चारों तरफ फैलाने से उसका आकार मथनी का सा बन जाता है। चतुर्थ समय में विदिशाओं के खाली भागों को आत्मप्रदेशों से पूर्ण करके उन्हें सम्पूर्ण लोक में व्याप्त किया जाता है। पाँचवें समय में आत्मा के लोकव्यापी आत्मप्रदेशों को संहरण के द्वारा फिर मंथाकार, छठे समय में मंथाकार से कपाटाकार बना लिया जाता है। सातवें समय में आत्मप्रदेश फिर दण्ड रूप में परिणत होते हैं और आठवें समय में पुनः वे अपनी असली स्थिति में आ जाते हैं। - वैदिक परम्परा के ग्रन्थों में आत्मा की व्यापकता के सम्बन्ध में जो चिन्तन किया गया है, उसकी तुलना हम केवलिसमुद्घात के चतुर्थ समय में जब आत्मा लोकव्यापी बन जाता है, उससे कर सकते हैं। व्याख्यासाहित्य इस प्रकार प्रज्ञापना के छत्तीस पदों में विपुल द्रव्यानुयोग सम्बन्धी सामग्री का संकलन है। इस प्रकार का संकलन अन्यत्र दुर्लभ है। प्रज्ञापना का विषय गम्भीरता को लिए हुए है। आगमों के गम्भीर रहस्यों को उद्घाटित करने के लिए मूर्धन्य मनीषियों के द्वारा व्याख्यासाहित्य का निर्माण किया गया। प्रज्ञापना पर निरुक्ति और भाष्य नहीं लिखे गये। किन्तु आचार्य श्री हरिभद्रसूरिश्वरजी ने प्रज्ञापना की प्रदेश-व्याख्या में प्रज्ञापना की अवचूर्णि का उल्लेख किया है। इससे यह स्पष्ट है आचार्य श्री हरिभद्रसूरिश्वरजी के पूर्व इस पर कोई न कोई अवचूर्णि अवश्य रही होगी, क्योंकि व्याख्या में यत्र-तत्र 'एतदुक्तं भवति', 'किमुक्तं भवति', 'अयमत्र भावार्थः', 'इदमत्र हृदयम्', 'एतेसिं भावणा' शब्द प्रयुक्त १.. (क) विशेषावश्यकभाष्य, गाथा ३०५०-५१ (ख) पंचसंग्रह, द्वार-१ गाथा १६ की टीका; २. लब्धिसार, गा. ६१७; ३. (क) विश्वश्चक्षुरुत • विश्वतो मुखो विश्वतो बाहुरुत विश्वतः पात्।-श्वेताश्वतरोपनिषद् ३-३, १११-५ (ख) सर्वतः पाणिपादं तत्, सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्। सर्वतः श्रुतिमल्लोके, सर्वमावृत्य तिष्ठति।।-भगवद्गीता, १३-१३; ४. अलमतिप्रसङ्गेन अवचूर्णिकामात्रमेतदिति।-प्रज्ञापनाप्रदेशव्याख्या, पृ.२८,११३ • 66
SR No.005761
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMunichandrasuri, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages554
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & agam_pragyapana
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy