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________________ श्री प्रज्ञापना सूत्र भाग १ की वेदना को अनिदा कहा है। शीतोष्ण वेदना के सम्बन्ध में आचार्य श्री मलयगिरिजी ने यह प्रश्न उपस्थित किया है कि उपयोग क्रमिक है तो फिर शीत और उष्ण इन दोनों का युगपत् अनुभव किस प्रकार हो सकता है? प्रश्न का समाधान करते हुए लिखा है - उपयोग क्रमिक है परन्तु शीघ्र संचारण के कारण अनुभव करते समय क्रम का अनुभव नहीं होता, इसी कारण आगम में शीतोष्ण वेदना का युगपत् अनुभव कहा है।" यही बात शारीरिक-मानसिक, साता-असाता के सन्बन्ध में है। आचार्य श्री मलयगिरिजी ने अदुःखा - असुखा वेदना का अर्थ सुख-दुःखात्मिका किया है अर्थात् जिसे सुख संज्ञा न दी जा सके, क्योंकि उसमें दुःख का भी अनुभव है। दुःख संज्ञा नहीं दी जा सकती क्योंकि उसमें सुख का भी अनुभव है। साता - असाता तथा सुख और दुःख में क्या भेद है? इस प्रश्न का उत्तर भी आचार्यश्री ने यह दिया है कि वेदनीय कर्म के पुद्गलों का क्रम प्राप्त उदय होने से जो वेदना होती है वह साता - असाता है पर जब कोई. दूसरा व्यक्ति उदीरणा करता है, उस समय जो साता - असाता का अनुभव होता है वह सुख-दुःख कहलाता है।" वेदना के आभ्युपगमिकी और औपक्रमिकी ये दो प्रकार हैं। अभ्युपग का अर्थ अंगीकार है। हम कितनी ही बातों को स्वेच्छा से स्वीकार करते हैं। तपस्या किसी कर्म के उदय से नहीं होती, वह अभ्युपग के कारण की जाती है । तप में जो वेदना होती है वह आभ्युपगमिकी वेदना है। उपक्रम का अर्थ कर्म की उदीरणा का हेतु है। शरीर में जब रोग होता है तो उससे कर्म की उदीरणा होती है इसलिए वह कर्म की उदीरणा का उपक्रम है। उपक्रम के निमित्त से होने वाली वेदना औपक्रमिकी वेदना है ।" समुद्घात : एक चिन्तन छत्तीसवें पद का नाम समुद्घातपद है । शरीर से बाहर आत्मप्रदेशों के प्रक्षेप को समुद्घात कहते हैं। दूसरे शब्दों में यह भी कह सकते हैं कि सम्भूत होकर आत्मप्रदेशों के शरीर से बाहर जाने का नाम समुद्घात है। समुद्घात के सात प्रकार बताये हैं—(१) वेदना समुद्घात, असातावेदनीय कर्म के आश्रित होने वाला समुद्घात। (२) कषाय समुद्घात, कषायमोहनीयकर्म के आश्रित होने वाला समुद्घात । (३) मारणान्तिकसमुद्घात, आयुष्य के अन्तर्मुहूर्त अवशिष्ट रह जाने पर उसके आश्रित होने वाला समुद्घात । (४) वैक्रियसमुद्घात, वैक्रियशरीर नामकर्म के आश्रित होने वाला समुद्घात। (५) तैजससमुद्घात, तैजसशरीरनामकर्म के आश्रित होने वाला समुद्घात । (६) आहारकसमुद्घात, आहारकशरीरनामकर्म के आश्रित होने वाला समुद्घात । (७) केवलिसमुद्घात, वेदनीय, नाम गोत्र और आयुष्यकर्म के आश्रित होने वाला समुद्घा । इन सात समुद्घातों में से किस जीव में कितने समुद्घात पाये जा सकते हैं, इस पर विचार करते हुए लिखा है - नरक के प्रथम चार समुद्घात हैं। देवों में और तिर्यंच पंचेन्द्रियों में प्रथम पांच समुद्घात हैं। वायु के अतिरिक्त शेष एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय में प्रथम तीन समुद्घात हैं। वायुकाय में प्रथम चार समुद्घात हैं। मनुष्य में सातों ही समुद्घात हो सकते हैं। जीवों की दृष्टि से समुद्घात की अपेक्षा से अल्प - बहुत्व पर चिन्तन करते हुए बताया है कि जघन्य संख्या आहारकसमुद्घात करने वाले की है और सबसे अधिक संख्या वेदनासमुद्घात करने वाले १. प्रज्ञापनाटीका, पत्र ५५५ २. प्रज्ञापनाटीका, पत्र ५५६; ३. प्रज्ञापनाटीका, पत्र ५५६ ४. प्रज्ञापनाटीका, पत्र ५५६ ५. अभ्युपगमेनअङ्गीकारेण निवृत्ता तत्र वा भवा आभ्युपगमिकी तया - शिरोलोचतपश्चरणादिकया वेदया- पीडया उपक्रमेण कर्मोंदीरणकारणेन निर्वृत्ता तत्र वा भवा औपक्रमिकी तया - ज्वरातीसारादिजन्यया । - स्थानांग वृति पत्र ८४ ६ समुद्धननं समुद्घातः शरीरराद्बहिर्जीवप्रदेशप्रक्षेपः।स्थानांग अभयदेव वृत्ति ३८०; ७. हन्तर्गमिक्रियात्वात् सम्भूयात्मप्रदेशानां च बहिरुहननं समुद्घातः । - तत्त्वार्थवार्तिक १,२०,१२ 65
SR No.005761
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMunichandrasuri, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages554
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & agam_pragyapana
File Size15 MB
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