________________
श्री प्रज्ञापना सूत्र भाग १ से अध्यवसाय दो प्रकार के होते हैं-१. प्रशस्त २. अप्रशस्त। तरतमता की दृष्टि से उन अध्यवसायों के असंख्यात भेद होते हैं। चौबीसों दण्डकों के जीवों के अध्यवसायों की चर्चा की गयी है।
देवों की परिचारणा के सम्बन्ध में चार विकल्प बताए गए हैं१. देव सदेवी सपरिचार
२. देव सदेवी अपरिचार - ३. देव अदेवी सपरिचार
४. देव. अदेवी अपरिचार
भवनपति, वाणव्यंतर, ज्योतिष्क, सौधर्म और ईशान, इनमें देवियां हैं। इसलिए प्रथम विकल्प है। यहाँ पर देव और देवियों में कायिक परिचारणा है। सनत्कुमार से लेकर अच्युत कल्प तक केवल देव ही होते हैं, देवियां नहीं होती। तथापि उनमें देवियों के अभाव में भी परिचारणा है। ग्रैवेयक और अनुत्तर विमानों में देव हैं, देवियाँ नहीं हैं और परिचारणा भी नहीं है। द्वितीय विकल्प देव हैं, देवियां हैं और अपरिचारक हैं यह विकल्प कहीं संभव नहीं है।
देवी नहीं है तथापि परिचारणा किस प्रकार संभव है, इसका स्पष्टीकरण करते हुए कहा है (१) सनत्कुमारमाहेन्द्रकल्प में स्पर्शपरिचारणा है। (२) ब्रह्मलोक-लान्तक कल्प में रूपपरिचारणा है। (३) महाशुक्र-सहस्रार में शब्दपरिचारणा है। (४) आनत-प्राणत-आरण-अच्युत कल्प में मनःपरिचारणा है। ... कायपरिचारणा में मनुष्य की तरह देव देवी के साथ मैथुन सेवन करता है। देवों में शुक्र के पुद्गल यहाँ बताये हैं और वे शुक्रपुद्गल देवियों में जाकर पांच इन्द्रियों के रूप में परिणत होते हैं। उस शुक्र में गर्भाधान नहीं होता क्योंकि देवों में वैक्रिय शरीर है। यह शुक्र वैक्रियवर्गणाओं से निर्मित होता है। जहाँ पर स्पर्श आदि परिचारणा बतायी गयी है उन देवलोकों में देवियाँ नहीं होतीं, पर जब उन देवों की इच्छा होती है तब सहस्रार देवलोक तक देवियां विकुर्वणा करके वहाँ उपस्थित होती हैं और देव अनुक्रम से उनके स्पर्श, रूप, शब्द से संतुष्ट होते हैं टीकाकार श्री ने यहाँ बताया है-उन देवों में भी शुक्रविजर्सन होता है अर्थात् देव और देवियों में सम्पर्क नहीं होता तथापि शुक्र-संक्रमण होता है और उसके परिणमन से उनके रूप-लावण्य में वृद्धि होती है। ___आनत-प्राणत-आरण-अच्युत कल्प में जब देवों की इच्छा मनःपरिचारणा की होती है तब देवी अपने स्थान पर रहकर ही दिव्य रूप और शृंगार सजाती है और वे देव स्वस्थान पर रहकर ही संतुष्ट होते हैं और देवी भी अपने स्थान पर रहकर ही रूप-लावण्यवती बन जाती है। यहाँ पर स्मरण रखना होगा कि कायपरिचारणा आदि में पूर्व की अपेक्षा उत्तर की परिचारणा में क्रमशः अधिक सुख है और अपरिचारणा वाले देवों में उससे भी अधिक सुख है। इससे स्पष्ट है कि परिचारणा में सुख का अभाव है पर प्राणी चारित्रमोहनीय की प्रबलता के कारण उसमें सुखी की अनुभूति करता है। वेदना : एक चिन्तन
पैतीसवाँ पद वेदनापद है। चौबीस दण्डकों में जीवों को अनेक प्रकार की वेदना का जो अनुभव होता है, उसकी विचारणा इस पद में की गयी है। वेदना के अनेक प्रकार बताये गये हैं, जैसे कि (१) शीत, उष्ण, शीतोष्ण, (२) द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव (३) शारीरिक, मानसिक और उभय (४) साता, असाता, सातासाता, (५) दु:खा, सुखा, अदु:खा-असुखा, (६) आभ्युपगमिकी, औपक्रमिकी, (७) निदा-अनिदा आदि। संज्ञी की वेदना निदा है और असंज्ञी १. केवलं ते वैक्रियशरीरान्तर्गता इति न गर्भाधानहेतवः।-प्रज्ञापनावृत्ति पत्र ५५०; २. पुद्गलसंक्रमो दिव्यप्रभावादवसेयः।-प्रज्ञापनावृत्ति पत्र ५५१; ३. प्रज्ञापनाटीका, पत्र २५२ 64.