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श्री प्रज्ञापना सूत्र भाग १ को नमन किया गया है और चतुर्थ श्लोक में प्रज्ञापना पर वृत्ति लिखने की प्रतिज्ञा की
__ आचार्यश्री मलयगिरिजी ने प्रज्ञापना का शब्दार्थ करते हुए लिखा है कि 'प्रकर्षेण ज्ञाप्यन्ते अनयेति प्रज्ञापना' अर्थात् जिसके द्वारा जीव-अजीव आदि पदार्थों का ज्ञान किया जाय वह प्रज्ञापना है। आचार्य श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी ने अपनी वृत्ति में प्रज्ञापना को उपांग के रूप में उल्लिखित किया है पर आचार्य श्री मलयगिरिजी ने उनसे आगे बढ़कर समवायाङ्ग का उपांग प्रज्ञापना को बताया है। उनका यह स्पष्ट अभिमत है कि समवायाङ्ग में निरूपित अर्थ का प्रतिपादन प्रज्ञापना में हुआ है। उन्होंने यह भी लिखा है कि कहा जा सकता है कि समवायाङ्ग निरूपित अर्थ का प्रज्ञापना में प्रतिपादन करना उचित नहीं, पर यह कथन उपयुक्त नहीं है, क्योंकि प्रज्ञापना में समवायाङ्ग प्रतिपादित अर्थ का ही विस्तार है और यह विस्तार मंदमति शिष्य के विषेष उपकार के लिए किया गया है। इसलिए इसकी रचना पूर्ण सार्थक है। [विज्ञों का यह मानना है कि अमुक अंग का अमुक उपांग है, इस प्रकार की व्यवस्था आचार्य श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी के पश्चात् और आचार्य श्री मलयगिरिजी के पूर्व हुई है।]
आचार्य श्री मलयगिरिजी की वृत्ति का मूलाधार आचार्य श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी की प्रदेशव्याख्या रही है तथापि आचार्य श्री मलयगिरिजी ने अन्य अनेक ग्रन्थों का उपयोग किया है। उदाहरण के रूप में आचार्य श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी ने स्त्री तीर्थकर बन सकती है या नहीं? इसके लिए सिद्धप्राभृत का संकेत किया है जबकि आचार्य श्री मलयगिरिजी ने स्त्रीमुक्त होती है या नहीं? इस सम्बन्ध में पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष की रचना कर विस्तार से विश्लेषण किया है।'
इसी प्रकार सिद्ध के स्वरूप के सम्बन्ध में विभिन्न दार्शनिकों के मन्तव्य की चर्चा करके अन्त में जैनदर्शन की दृष्टि से सिद्ध के स्वरूप की संस्थापना की है। सामान्य रूप से आचार्य श्री मलयगिरिजी ने व्याख्या के सम्बन्ध में विभिन्न चिन्तकों के मतभेद का सूचन किया है पर कुछ स्थलों पर उन्होंने अपना स्वतन्त्र मत भी प्रकट किया है
और जहाँ उन्हें लगा कि यह उलझन भरा है वहाँ उन्होंने अपना मत न देकर केवलिगम्य कहकर सन्तोष किया है। यह कथन उनकी भवभीरुता का द्योतक है। आज जिन विषयों में कुछ भी नहीं जानते उस विषय में भी जो लोग अधिकार के साथ अपना मत दे देते हैं, उन्हें इस महान आचार्य श्री से प्रेरणा लेनी चाहिए।
आचार्य श्री मलयगिरिजी ने कितने ही विषयों की चर्चा तर्क और श्रद्धा दोनों की दृष्टि से की है। जैसेप्रज्ञापना की रचना श्यामाचार्य ने की तथापि इसमें श्रमण भगवान् महावीर और गणधर गौतम का संवाद कैसे? भंगवान् महावीर और गौतम का संवाद होने पर भी इसमें अनेक मतभेदों का उल्लेख कैसे? सिद्ध के पन्द्रह भेदों की व्याख्या के साथ उनकी समीक्षा भी की है। स्त्रियाँ मोक्ष पा सकती हैं, वे षडावश्यक, कालिक और उत्कालिक सूत्रों का अध्ययन कर सकती हैं, निगोद की चर्चा, म्लेच्छ की व्याख्या, असंख्यात आकाश प्रदेशों में अनन्त प्रदेशी स्कन्ध का समावेश किस प्रकार होता है? भाषा के पुद्गलों के ग्रहण और निसर्ग की चर्चा, अनन्त जीव होने पर भी शरीर असंख्यात कैसे? आदि विविध विषयों पर कलम चलाकर आचार्य श्री ने अपनी प्रकृष्ट प्रतिभा का ज्वलन्त परिचय दिया है। अनेक विषयों की संगति बिठाने हेतु आचार्य श्री ने नयदृष्टि का अवलम्ब लेकर व्याख्या की है और अनेक स्थलों पर पूर्वाचार्यों का और पूर्व संप्रदायों की मान्यताओं का उल्लेख किया है। प्रस्तुत वृत्ति का ग्रन्थमान १६००० श्लोक प्रमाण है। १. जयति नमदमरमुकुटप्रतिबिम्बच्छद्मविहितबहुरूपः। उद्धर्तुमिव समस्तं विश्वं भवपकतो वीरः।।१।। जिनवचनामृतजलधिं वन्दे यबिन्दुमात्रमादाय।
अभवन्नूनं सत्त्वा जन्म-जरा-व्याधिपारिहीनाः ॥२॥ प्रणमत गुरुपदपक्कजमधरीकृतकामधेनुकल्पलतम्। यदुपास्तिवशानिरुपममश्नुवते ब्रह्म तनुभाजः ॥३॥ जडमतिरपि गुरुचरणोपास्तिसमुद्भूतविपुलमतिविभवः। समयानुसारतोऽहं विदधे प्रज्ञापनाविवृतिम् ।।४।।-प्रज्ञापना टीका '२. (क) पाणिनिः स्वप्राकृतव्याकरणे-पत्र ५, पत्रा ३६५ (ख) उत्तराध्ययन नियुक्ति गाथा-पत्र १२ जीवाभिगमचूर्णि प.३०८ आदि; ३. पण्णवणासुत्तं-प्रस्तावना भाग-२, पृ. १५४-१५७; ४. देखिए-पण्णवणासुत्तं-प्रस्तावना, २, १५७
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