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________________ श्री प्रज्ञापना सूत्र भाग १ कारण स्थिति और अनुभागबन्ध होता है। प्रस्तुत पदों में विभिन्न प्रकृतियों के आधार पर कर्म के मूल आठ पद कहे गये हैं। कर्म की आठों मूल प्रकृतियाँ नैरयिक आदि सभी जीवों में होती हैं। ज्ञानावरण आदि कर्मों के बन्ध का मूल कारण राग और द्वेष है। राग में माया और लोभ का तथा द्वेष में क्रोध और मान का समावेश किया गया है। कर्मों के वेदन-अनुभव के सम्बन्ध में बताते हुए कहा है-वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र कर्म तो चौबीसों दण्डकों के जीव वेदते ही हैं परन्तु ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय, इन चार कर्मों को कोई जीव वेदते भी हैं और नहीं भी वेदते। यहाँ पर वेदना के लिए 'अनुभव' शब्द का प्रयोग किया गया है। आहार : एक चिन्तन ____ अट्ठाइसवें पद का नाम आहारपद है। इनमें जीवों की आहार संबंधी विचारणा दो उद्देशकों द्वारा की गयी है। प्रथम उद्देशक में ग्यारह द्वारों से और दूसरे उद्देशक में तेरह द्वारों से आहार के सम्बन्ध में विचार किया गया है। चौबीस दण्डकों में जीवों का आहार सचित्त होता है, अचित्त होता है या मिश्र होता है? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा है कि वैक्रियशरीरधारी जीवों को आहार सचित्त ही होता है परन्तु औदारिकशरीरधारी जीव तीनों प्रकार का आहार ग्रहण करते हैं। नारकादि चौबीस दण्डकों में सात द्वारों से अर्थात् नारक आदि जीव आहारार्थी हैं या नहीं? कितने समय के पश्चात् ये आहारार्थी होते हैं? आहार में वे क्या लेते हैं? सभी दिशाओं में से आहार ग्रहणकर क्या सम्पूर्ण आहार को परिणित करते हैं? जो आहार के पुद्गल वे लेते हैं, वे सर्वभाव से लेते हैं या अमुक भाग का ही आहार लेते हैं? क्या ग्रहण किये हुए सभी पुद्गल का आहार करते हैं? आहार में लिये हुए पुद्गलों का क्या होता है? इन सात द्वारों से आहार सम्बन्धी विचारणा की गयी है। जीव जो आहार लेते हैं वह आभोगनिर्वर्तित--स्वयं की इच्छा होने पर आहार लेना और अनाभोगनिवर्तित--बिना इच्छा के आहार लेना, इस तरह दो प्रकार का है। इच्छा होने पर आहार लेने में जीवों की भिन्न-भिन्न कालस्थिति है परन्तु बिना इच्छा लिया जाने वाला आहार निरन्तर लिया जाता है। वर्ण-रस आदि से सम्पन्न अनन्त प्रदेशी स्कन्ध वाला और असंख्यातप्रदेशी क्षेत्र में अवगाढ़ और आत्मप्रदेशों से स्पृष्ट ऐसे पुद्गल ही आहार के लिए उपयोगी होते हैं। __प्रस्तुत पद के दूसरे उद्देशक में आहार, भव्य, संज्ञी, लेश्या, दृष्टि, संयत, कषाय, ज्ञान, योग, उपयोग, वेद, शरीर और पर्याप्ति इन तेरह द्वारों के माध्यम से जीवों के आहारक और अनाहारक विकल्पों की चर्चा की गयी है। प्रथम उद्देशक में जो आहार के भेदों की चर्चा है, उसकी यहाँ पर कोई चर्चा नहीं है। आहारक और अनाहारक इन दो पदों के आधार से यह भंगों की रचना की है और किन-किन जीवों में कितने भंग (विकल्प) प्राप्त होते हैं, इस सम्बन्ध में चिन्तन किया गया है। ... . आचार्य श्री मलयगिरिजी ने तीसरे संज्ञी द्वार में यह प्रश्न उत्पन्न किया है-संज्ञी का अर्थ समनस्क है। जब जीव विग्रहगति करता है उस समय जीव अनाहारक होता है। विग्रहगति में मन नहीं होता। फिर उन्हें संज्ञी कैसे कहा है? आचार्यश्री ने इस प्रश्न का समाधान इस प्रकार किया है-जब जीव विग्रहगति करता है तब वह संज्ञी जीव सम्बन्धी आयुकर्म का वेदन करता है, इस कारण उसे संज्ञी कहा है, भले ही उस समय उसके मन न हो। दूसरा प्रश्न यह हैनारक, भवनपति और वाणव्यन्तर को असंज्ञी क्यों कहा? इसका उत्तर यह है कि इन तीनों में असंज्ञी जीव उत्पन्न होता है, इस अपेक्षा से उन्हें असंज्ञी कहा है। "58
SR No.005761
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMunichandrasuri, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages554
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & agam_pragyapana
File Size15 MB
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