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________________ श्री प्रज्ञापना सूत्र भाग १ उनके भेद, उपभेद-कुल बहत्तर कहे गये हैं। सूत्रकृताङ्ग' में तेरह क्रियास्थान बताये हैं तो तत्त्वार्थसूत्र में पच्चीस क्रियाओं का निर्देश है। भगवती में भी अनेक स्थलों में क्रियाओं का वर्णन मिलता है। उन सभी के साथ प्रज्ञापना के प्रस्तुत क्रियापद की तुलना की जा सकती है। कर्मसिद्धान्त : एक चिन्तन । तेईस से लेकर सत्ताईसवें पद तक के कर्मप्रकृति, कर्मबन्ध, कर्मबन्ध-वेद, कर्मवेद-बन्ध, कर्मवेदवेदक, इन पांच पदों में कर्म सम्बन्धी विचारणा की गयी है। कर्मसिद्धान्त भारतीय चिन्तकों के चिन्तन का नवनीत है। वस्तुतः आस्तिक दर्शनों का भव्य-भवन कर्मसिद्धान्त पर ही आधृत है। भले ही कर्म के स्वरूप-निर्णय के सम्बन्ध में मतैक्य न हो, पर सभी चिन्तकों ने आध्यात्मिक उत्कर्ष के लिए कर्म-मुक्ति आवश्यक मानी है। यही कारण है कि सभी दार्शनिकों ने कर्म के सम्बन्ध में चिंतन किया है। परन्तु जैनदर्शन का कर्म संबंधी चिन्तन बहुत ही सूक्ष्मता को लिए हुए है। इस विराट् विश्व में विविध प्रकार के प्राणियों में दृग्गोचर विषमताओं का मूल कर्म है। जैनदर्शन ने कर्म को केवल संस्कारमात्र ही नहीं माना अपितु वह एक वस्तुभूत पदार्थ है जो राग-द्वेष का क्रिया से आकृष्ट होकर जीव के साथ बँध जाता है। वह पदार्थ जीवप्रदेश के क्षेत्र में स्थित, सूक्ष्म, कर्म-प्रायोग्य अनन्तानन्त परमाणुओं से बना होता है। आत्मा अपने सभी प्रदेशों-सर्वांग से कर्मों को आकृष्ट करता है। वे कर्मस्कन्ध ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय प्रभृति विभिन्न प्रकृतियों या रूपों में परिणत होते हैं। प्रत्येक आत्मप्रदेश पर अनन्तानन्त कर्मपुद्गलस्कन्ध चिपके रहते हैं। . राग-द्वेषमय आत्म-परिणति भावकर्म है और उससे आकृष्ट-संश्लिष्ट होने वाले पुद्गल द्रव्यकर्म हैं। कार्मणवर्गणा, जो पुद्गलद्रव्य का एक प्रकार है, सम्पूर्ण संसार में व्याप्त है। वह कार्मणवर्गणा ही जीव के भावों का निमित्त पाकर कर्म रूप में परिणत होती है। यहाँ प्रश्न हो सकता है कि आत्मा अमूर्त और कर्मद्रव्य मूर्त है तो अमूर्त के साथ मूर्त का बन्ध कैसे संभव है? समाधान इस प्रकार है-जैनदर्शन ने जीव और कर्म को प्रवाह की दृष्टि से अनादि माना है। उसका यह मंतव्य नहीं है कि जीव पहले पूर्ण शुद्ध था, उसके पश्चात् कर्मों से आबद्ध हुआ। जो जीव संसार में अवस्थित है, जन्म-मरण के चक्र में पड़ा हुआ है, उसके प्रतिपल-प्रतिक्षण राग-द्वेषरूप परिणाम होते हैं। उन परिणामों के फलस्वरूप निरन्तर कर्म बंधते रहते हैं। उन कर्मों के बन्ध से उसे विविध गतियों में जन्म लेना पड़ता है। जन्म लेने पर शरीर होता है, शरीर में इन्द्रियाँ होती हैं और इन्द्रियों से वह आत्मा विषय ग्रहण करता है। विषयों को ग्रहण करने से राग-द्वेष के भाव उबुद्ध होते हैं। इस प्रकार भावों से कर्म और कर्मों से भाव उत्पन्न होते रहते हैं। इससे स्पष्ट है कि जो जीव मूर्त कर्मों से बंधा हुआ है अर्थात् स्वरूपतः अमूर्त होने पर भी कर्मबद्ध होने से मूर्त बना हुआ है, उसी के नूतन कर्म बँधते हैं। इस तरह मूर्त का मूर्त के साथ संयोग होता है और मूर्त का मूर्त्त के साथ बन्ध भी होता है। आत्मा में अवस्थित पुराने कर्मों के कारण ही नूतन कर्म बंधते हैं। . __आत्मा के साथ कर्मबन्ध की प्रक्रिया चार प्रकार की है-प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध, प्रदेशबन्ध। जब आत्मा कर्मपुद्गलों को ग्रहण करता है, उस समय वे पुद्गल एकरूपी होते हैं। परन्तु बन्धकाल में वे विभिन्न प्रकृतियों-स्वभाव वाले हो जाते हैं। यह प्रकृतिबन्ध कहलाता है। बद्ध कर्मों में समय की मर्यादा का होना स्थितिबन्ध है। आत्मपरिणामों की तीव्रता और मंदता के कारण कर्मफल में तीव्रता या मंदता होना अनुभागबन्ध है और पुद्गलों का आत्मप्रदेशों के साथ एकमेक होना प्रदेशबन्ध है। योग के कारण प्रकृति और प्रदेशबन्ध होता है और कषाय के १. सूत्रकृताङ्ग २।२।२; २. अव्रतकषायेन्द्रियक्रियाः पञ्चचतुःपञ्चविंशतिसंख्याः पूर्वस्य भेदाः।-तत्त्वार्थसूत्र ६६; ३. 'भंगवती शतक १, उद्देशक २ शतक ८, उद्देशक ४ - शतक ३, उद्देशक ३ - 57
SR No.005761
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMunichandrasuri, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages554
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & agam_pragyapana
File Size15 MB
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