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श्री प्रज्ञापना सूत्र भाग १
प्रदेशों का अल्प - बहुत्व और अवगाहना का अल्प - बहुत्व इन सात द्वारों से शरीर के सम्बन्ध में विचारणा की गयी है। गति आदि अनेक द्वारों से पूर्व में जीवों की विचारणा हुई है, पर उनमें शरीरद्वार नहीं है। यहाँ पर प्रथम विधिद्वार में शरीर के पांच भेदों-औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण का वर्णन करने के पश्चात् औदारिक आदि शरीरों के भेदों की चर्चा है । औदारिकशरीरधारी एकेन्द्रिय आदि में कौनसा संस्थान है, उनकी अवगाहना कितनी है ? एक जीव में एक साथ कितने-कितने शरीर सम्भव हैं? शरीर के द्रव्य-प्रदेशों का अल्पबहुत्व, शरीर की अवगाहना का अल्पबहुत्व आदि के सम्बन्ध में विस्तार से चर्चा है।
क्रिया : एक चिन्तन
बाईसवाँ क्रियापद है। प्राचीन युग में सुकृत- दुष्कृत, पुण्य-पाप, कुशल- अकुशल कर्म के लिए क्रिया व्यवहृत होता था और क्रिया करने वालों के लिए क्रियावादी शब्द का प्रयोग किया जाता था। आगम पाली - पिटकों में प्रस्तुत अर्थ में क्रिया का प्रयोग अनेक स्थलों पर हुआ है।' प्रस्तुत पद में क्रिया-कर्म की विचारणा की गयी है। कर्म अर्थात् वासना या संस्कार, जिनके कारण पुनर्जन्म होता है। जब हम आत्मा के जन्म-जन्मान्तर की कल्पना करते हैं तब उसके कारण-रूप कर्म की विचारणा अनिवार्य हो जाती है। भगवान् महावीर और बुद्ध के समय क्रियावाद शब्द कर्म को मानने वालों के लिए प्रचलित था । इसलिए क्रियावाद और कर्मवाद दोनों शब्द एक-दूसरे के पर्यायवाची हो गये थे। उसके बाद कालक्रम से क्रियावाद शब्द के स्थान पर कर्मवाद ही प्रचलित हो गया। इसका एक कारण यह भी है कर्म- विचार की सूक्ष्मता ज्यों-ज्यों बढ़ती गयी त्यों-त्यों वह क्रिया- विचार से दूर भी होता गया । यह क्रियाविचार कर्मविचार की पूर्व भूमिका के रूप में हमारे समक्ष उपस्थित है। प्रज्ञापना में क्रियापद, सूत्रकृताङ्ग में क्रियास्थान और भगवंती' में अनेक प्रसंगों पर क्रिया और क्रियावाद की चर्चा की गयी है। इससे ज्ञात होता है उस समय क्रिया की चर्चा का कितना महत्त्व था ।
प्रस्तुत पद में विभिन्न दृष्टियों से क्रिया पर चिन्तन है । क्रिया का सामान्य अर्थ प्रवृत्ति है, पर यहाँ विशेष प्रवृत्ति के अर्थ में क्रिया शब्द व्यवहृत हुआ है। क्योंकि विश्व में ऐसी कोई वस्तु नहीं जिसमें क्रियाकारित्व न हो । वस्तु वही है जिसमें अर्थ-क्रिया की क्षमता हो, जिसमें अर्थ-क्रिया की क्षमता नहीं वह अवस्तु है । इसलिए हर एक वस्तु में प्रवृत्ति तो है ही, पर यहाँ विशेष प्रवृत्ति को लेकर ही क्रिया शब्द का प्रयोग हुआ है। क्रिया के कायिकी, आधिकरणिकी, प्राद्वेषिकी, पारितापनिकी, प्राणातिपातिकी, ये पांच प्रकार बताये हैं। क्रिया के जो ये पांच विभाग किये गये हैं वे हिंसा - और अहिंसा को लक्ष्य में रखकर किये गये हैं। इन पांचों क्रियाओं में अठारह पापस्थान - प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान आदि समाविष्ट हो जाते हैं। तीसरे रूप में क्रिया के पांच प्रकार इस प्रकार बताये हैं - आरंभिया, पारिग्गहिया, मातावत्तिया, अपच्चक्खान तथा मिच्छादंसणवत्तिया । ये पांच क्रियाएं भी अठारह पापस्थानों में समाविष्ट हो जाती हैं। यहाँ पर किसके द्वारा कौनसी क्रिया होती है यह भी बताया है। उदाहरण के रूप में- प्राणातिपात से होने वाली क्रिया षट्जीवनिकाय के सम्बन्ध में होती है। नरक आदि चौबीस दण्डकों के जीव छह प्रकार का प्राणातिपात करते हैं। मृषावाद सभी द्रव्यों के सम्बन्ध में किया जाता है। जो द्रव्य ग्रहण किया जाता है उसके सम्बन्ध में अदत्तादान होता है। रूप और रूप वाले द्रव्यों के सम्बन्ध में मैथुन होता है । परिग्रह सर्वद्रव्यों के विषय में होता है। प्राणातिपात आदि क्रियाओं के द्वारा कर्म की कितनी प्रकृतियों का बन्ध होता है, इस संबन्ध में भी चर्चा - विचारणा की गयी है।
स्थानांग में विस्तार के साथ क्रियाओं के भेद-प्रभेदों की चर्चा है। वहाँ जीवक्रिया, अजीवक्रिया और फिर १. दीघनिकाय सामञ्जफलसुत्त; २. सूत्रकृताङ्ग १।१२।१ ३. भगवती ३० - १ ४ स्थानाङ्ग, पहला स्थान, सूत्र ४; द्वितीय स्थान, सूत्र २ - ३७
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