________________
श्री प्रज्ञापना सूत्र भाग १ इसमें जीव, गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, लेश्या, सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, संयत, उपयोग, आहार, भाषक, परित्त, पर्याप्त, सूक्ष्म, संज्ञी, भव (सिद्धि), अस्ति (काय), चरिम की अपेक्षा से कायस्थिति का वर्णन है। वनस्पति की कायस्थिति असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा' बतायी है। इसका तात्पर्य यह है कि कोई भी वनस्पति का जीव अनादि काल से वनस्पतिरूप में नहीं रह सकता। उस जीव ने वनस्पति के अतिरिक्त अन्य भव किये होने चाहिए। इससे यह स्पष्ट है प्रज्ञापना के रचयिता आचार्य श्याम के समय तक व्यवहारराशि-अव्यवहारराशि की कल्पना पैदा नहीं हुई थी। व्यवहारराशि-अव्यवहारराशि की कल्पना दार्शनिक गुण की देन है। यही कारण है कि प्रज्ञापना की टीका में व्यवहारराशि और अव्यवहारराशि, ये दो भेद वनस्पति के किये गये हैं और निगोद के जीवों के स्वरूप का वर्णन है। माता मरुदेवी का जीव अनादि काल से वनस्पति में था; इसका उल्लेख टीका में किया गया है।
इस पद में अनेक ज्ञातव्य विषयों पर चर्चा की गई है। टीकाकार श्री मलयगिरिजी ने मूल सूत्र में आयी हुई अनेक बातों का स्पष्टीकरण टीका में किया है।
उन्नीसवाँ सम्यक्त्वपद है। इसमें जीवों के चौबीस दण्डकों में सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और मिश्रदृष्टि के सम्बन्ध में विचार करते हुए बताया है कि सम्यग्-मिथ्यादृष्टि केवल पंचेन्द्रिय होता है और एकेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि ही होता है। द्वीन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक सम्यग्मिथ्यादृष्टि नहीं होते। षट्खण्डागम में असंज्ञी पंचेन्द्रिय को मिथ्यादृष्टि ही कहा है। सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक होते हैं। सम्यक्त्व से तात्पर्य है-व्यवहार से जीवादि का श्रद्धान और निश्चय से आत्मा का श्रद्धान है। जीव-अजीव आदि नौ पदार्थ हैं। उन परमार्थभूत पदार्थों के सद्भाव का उपदेश से अथवा निसर्ग से होने वाले श्रद्धान को सम्यक्त्व जानना चाहिए। ... अन्तक्रिया : एक चिन्तन
बीसवें पद का नाम अन्तक्रिया है। मृत्यु होने पर जीव का स्थूल शरीर यहाँ पर रह जाता है पर तैजस और कार्मण, जो सूक्ष्म शरीर हैं, उसके साथ रहते हैं। कार्मणशरीर के द्वारा ही फिर स्थूल शरीर निष्पन्न होता है। अतः स्थूल शरीर के एक बार छूट जाने के बाद भी सूक्ष्म शरीर रहने के कारण जन्म-मरण की परम्परा का अन्त नहीं होता। जब सूक्ष्म शरीर नष्ट हो जाता है तो भवपरम्परा का भी अन्त हो जाता है। अन्तक्रिया का अर्थ है जन्म-मरण की परम्परा का अन्त करना। भव का अन्त करने वाली क्रिया अन्तक्रिया है। यह क्रिया दो अर्थों में व्यवहृत हुई है-नवीन भव अथवा मोक्ष, दूसरे शब्दों में यहाँ पर मोक्ष और मरण इन दोनों अर्थों में अन्तक्रिया शब्द का प्रयोग हुआ है। स्थानांग में भरत, गजसुकुमाल, सनत्कुमार और माता मरुदेवी की जो अन्तक्रिया बतायी गयी है, वह जन्म-मरण का अन्तकर मोक्ष प्राप्त करने की क्रिया है। वे आत्मा एवं शरीर आदि से उत्पन्न क्रियाओं का अन्तकर अक्रिय बन गये। प्रस्तुत पद में अन्तक्रिया का विचार जीवों के नरक आदि चौबीस दण्डकों में किया गया है। यह भी बताया है कि सिर्फ मानव ही अन्तक्रिया यानी मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं। इसका वर्णन दस द्वारों के द्वारा किया गया है। अवगाहना-संस्थान : एक चिन्तन
इक्कीसवाँ 'अवगाहनासंस्थान' पद है। इस पद में जीवों के शरीर के भेद, संस्थान-आकृति, प्रमाण-शरीर का माप, शरीरनिर्माण के लिए पुद्गलों का चयन, जीव में एक साथ कौन-कौनसे शरीर होते हैं? शरीरों के द्रव्यों और १. यह मान्यता आचार्य देवेन्द्रमुनिजी की अपनी है। इसका पंचांगी से कोई संबंध नहीं है। पंचांगी में टीकाकार श्री ने व्यवह्यराशि और
अव्यवहारराशि का वर्णन दिया ही है।; २. प्रज्ञापना टीका पत्र ३७९।३८५; ३. जीवादीसदहणं सम्मत्तं जिणवरेहिं पण्णत्तं। ववहारा णिच्छयदो अप्पाणं हवइ सम्मत्तं ।।-दर्शनाप्राभृत, २०, ४. जीवाऽजीवा य बंधो य, पुत्र-पावाऽऽसवो तहा। संवरो णिज्जरा मोक्खो, संतेए तहिया नव॥ तहियाणं तु भावाणं सब्भावे उवएसणं। भावेण सद्दहंतस्स, सम्मत्तं तं वियाहिय।।-उत्तराध्ययन २८।१४-१५; ५. स्थानांग, स्थान ४१
-
55