SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री प्रज्ञापना सूत्र भाग १ रूप में विवक्षित हैं। प्रस्तुत पद में छः उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक में नारक आदि चौबीस दण्डकों के सम्बन्ध में आहार, शरीर, श्वासोच्छ्वास, कर्म, वर्ण, लेश्या, वेदना, क्रिया आयु आदि का वर्णन है। जिन नारक जीवों के शरीर की अवगाहना बड़ी है उनमें आहार आदि भी अधिक है। नारकों में उत्तरोत्तर अवगाहना बढ़ती है। प्रथम नरक की अपेक्षा द्वितीय में और द्वितीय से तृतीय में, पर देवों में इससे उल्टा क्रम है। वहाँ पर उत्तरोत्तर अवगाहना कम होती है और आहार की मात्रा भी। आहार की मात्रा अधिक होना दुःख का ही कारण है। दुःखी व्यक्ति अधिक खाता है, सुखी कम। सलेश्य जीवों की अपेक्षा नारक आदि चौबीस दण्डकों में सम-विषम आहार आदि की चर्चा है। द्वितीय उद्देशक में लेश्या के कृष्ण, नील, कापोत, तेज, पद्म, शुक्ल, ये छः भेद बताकर नरक आदि चार गतियों के जीवों में कितनी-कितनी लेश्यायें होती हैं इसका विस्तार से निरूपण है। अपेक्षा दृष्टि से लेश्या अल्पबहुत्व का भी चिन्तन इसमें किया गया है। साथ ही २४ दण्डक के जीवों को लेकर लेश्या की अपेक्षा से ऋद्धि के अल्प और बहुत्व के सम्बन्ध में प्रकाश डाला है। तृतीय उद्देशक में जन्म और मृत्यु काल की लेश्या सम्बन्धी चर्चा है। अमुक-अमुक लेश्या वाले जीवों के अवधिज्ञान की विषय-मर्यादा पर भी प्रकाश डाला गया है। चतुर्थ उद्देशक में एक लेश्या का दूसरी लेश्या में परिणमन होने पर उसके वर्ण, रस, गंध, स्पर्श किस प्रकार परिवर्तित होते हैं, इसकी विस्तृत चर्चा है। लेश्याओं के विविध परिणाम, उनके प्रदेश, अवगाहना, क्षेत्र और स्थान की अपेक्षा से अल्पबहुत्व द्रव्य और प्रदेश को लेकर किया गया है। पाँचवें उद्देशक में एक लेश्या का दूसरी लेश्या में देव-नारक की अपेक्षा से परिणमन नहीं होता, यह बताया है। छठे उद्देशक में विविध क्षेत्रों में रहे हुए मनुष्य और मनुष्यनी की अपेक्षा से चिन्तन किया गया है। यह स्मरण रखना कि जो लेश्या माता-पिता में होती है वही लेश्या पुत्र और पुत्री में भी हो. यह नियम नहीं है। जीव को लेश्या की प्राप्ति के पश्चात् अन्तर्मुहूर्त व्यतीत हो जाने पर तथा अन्तर्मुहूर्त शेष रह जाने पर जीव परलोक में जन्म ग्रहण करता है, क्योंकि मृत्युकाल में आगामी भव की और उत्पत्तिकाल में उसी लेश्या का अन्तर्मुहूर्त काल तक होना आवश्यक है। जीव जिस लेश्या में मरता है, अगले भव में उसी लेश्या में जन्म लेता है।' उत्तराध्ययन में किस किस लेश्यावाले जीव के किस किस प्रकार के अध्यवसाय होते हैं तथा भगवती में लेश्याओं के द्रव्य और भाव ये भेद किये गये हैं। पर प्रज्ञापना का लेश्यापद बहुत ही विस्तृत होने पर भी उसमें उसकी परिभाषा एवं द्रव्य और भाव आदि बातों की कमी है। इस कमी के सम्बन्ध में आगमप्रभावक पुण्यविजयजी महाराज का यह मानना है कि यह इस आगम की प्राचीनता का प्रतीक है। कायस्थिति : एक विवेचन अठारहवें पद का नाम कायस्थिति है। इसमें जीव और अजीव दोनों अपनी अपनी पर्याय में कितने काल तक रहते हैं, इस पर चिन्तन किया गया है। चतुर्थ स्थितिपद और इस पद में अन्तर यह है कि स्थितिपद में तो २४ दण्डकों में जीवों की भवस्थिति अर्थात् एक भव की अपेक्षा से आयुष्य का विचार है जबकि इस पद में एक जीव मरकर सतत उसी पर्याय में जन्म लेता रहे तो ऐसे सब भवों की परम्परा की काल-मर्यादा अथवा उन सभी भवों में आयुष्य का कुल जोड़ कितना होगा? स्थितिपद में तो केवल एक भव की आयु का ही विचार है जबकि प्रस्तुत पद में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय आदि अजीव द्रव्य, जो काय के रूप में जाने जाते हैं, उनका उस रूप में रहने के काल का अर्थात् स्थिति का भी विचार किया गया है। १., जोगपउत्ती लेस्सा, कसायउदयाणुरंजिया होइ। तत्तो दोण्णं कज्जं, बंधचउक्कं समुद्दिडिं।।४८९।।-गो. जीवकाण्ड; २. जल्लेसाई दव्वाइं आयइत्ता कालं करेइ, तल्लेसेसु उववज्जइ। .54
SR No.005761
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMunichandrasuri, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages554
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & agam_pragyapana
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy