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________________ श्री प्रज्ञापना सूत्र भाग १ प्रज्ञापना की टीका में आचार्य श्री मलयगिरिजी ने इन पन्द्रह प्रयोग के भेदों में तेजसकायप्रयोग का निर्देश होने से कार्मण के साथ तैजस को मिलाकर तैजसकार्मणशरीरप्रयोग की चर्चा की है। इन पन्द्रह प्रयोगों की जीव में और विशेष रूप से चौबीस दण्डकों में योजना बतायी है। प्रयोग के विवेचन के पश्चात् इस पद में गतिप्रपात का भी निरूपण है। उसके पांच प्रकार बताये हैं- प्रयोगगति, तत्गति, बन्धनछेदनगति, उपपातगति और विहायोगति । इसके भी अवान्तर अनेक भेद - प्रभेद हैं। लेश्या : एक विश्लेषण सत्रहवाँ लेश्यापद है। लेश्या एक प्रकार का पौद्गलिक पर्यावरण है। जीव से पुद्गल और पुद्गल से जीव प्रभावित होता है। जीव को प्रभावित करने वाले पुद्गलों के अनेक समूह हैं। उनमें से एक समूह का नाम लेश्या है। उत्तराध्ययनबृहद्वृत्ति में लेश्या का अर्थ आणविक आभा, कान्ति, प्रभा या छाया किया है। दिगम्बरपरम्परा के आचार्य शिवार्य ने लेश्या उसे कहा है जो जीव का परिणाम छायापुद्गलों से प्रभावित होता है। प्राचीन जैन वाङ्मय में शरीर के वर्ण, आणविक और उससे प्रभावित होने वाले विचार इन तीनों अर्थों में लेश्या शब्द व्यवहृत हुआ है। शरीर के वर्ण और आणविक आभा द्रव्यलेश्या है तो विचार भावलेश्या है।" विभिन्न ग्रन्थों में लेश्या की विभिन्न परिभाषायें प्राप्त होती हैं। प्राचीन पंचसंग्रह, धवला', गोम्मटसार, आदि में लिखा है कि जीव जिसके द्वारा अपने को पुण्य-पाप से लिप्त करता है वह लेश्या । तत्त्वार्थवार्तिक', पंचास्तिकाय", आदि ग्रन्थों के अनुसार कषाय के उदय से अनुरंजित योगों की प्रवृत्ति लेश्या है। स्थानांग -अभयदेववृत्ति", ध्यानशतक १२, प्रभृति ग्रन्थों में लिखा है - जिसके द्वारा प्राणी कर्म से संश्लिष्ट होता है उसका नाम लेश्या है। कृष्ण आदि द्रव्य की सहायता से जो जीव का परिणाम होता है वह लेश्या है। योग परिणाम लेश्या है । ३ उपर्युक्त परिभाषाओं के अनुसार लेश्या से जीव और कर्म के पुद्गलों का सम्बन्ध होता है, कर्म की स्थिति निष्पन्न होती है और कर्म का उदय होता है। आत्मा की शुद्धि और अशुद्धि के साथ लेश्या का सम्बन्ध है। पौद्गलिक लेश्या का मन की विचारधारा पर प्रभाव पड़ता है और मन की विचारधारा का लेश्या पर प्रभाव पड़ता है। जिस प्रकार की लेश्या होगी वैसी ही मानसिक परिणति होती है। कितने ही मूर्धन्य मनीषियों का यह मन्तव्य है कि कषाय की मंदता से अध्यवसाय में विशुद्धि होती है और अध्यवसाय की विशुद्धि से लेश्या की शुद्धि होती है । १४ जिस परिभाषा के अनुसार योगप्रवृत्ति लेश्या है, उस दृष्टि से तेरहवें गुणस्थान तके भावलेश्या का सद्भाव है और जिस परिभाषा के अनुसार कषायोदय-अनुरंजित योगप्रवृत्ति लेश्या है, उस दृष्टि से दसवें गुणस्थान पर्यन्त ही लेश्या है। ये दोनों परिभाषाएँ अपेक्षाकृत होने से एक दूसरे के विरुद्ध नहीं हैं। जहाँ योगप्रवृत्ति को लेश्या कहा है, वहाँ पर प्रकृति और प्रदेशबन्ध के निमित्तसूत्र परिणाम लेश्या के रूप में विवक्षित हैं और जहाँ कषायोदय से अनुरंजित योग की प्रवृत्ति को लेश्या कहा है, वहाँ स्थिति, अनुभाग आदि चारों बन्ध के निमित्तभूत परिणाम लेश्या १. प्रज्ञापनाटीका पत्र ३१९ – आचार्य श्री मलयगिरिजी; २. लेशयति-श्लेषयतीवात्मनि जननयनानीति लेश्या - अतीव चक्षुराक्षेपिका स्निग्धदीप्तरूपा छाया । —बृहद्वृत्ति, पत्र ६५०; ३. जह बाहिरलेस्साओ, किण्हादीओ हवंति पुरिसस्स । अब्भन्तरलेस्साओ, तह किण्हादीय पुरिसस्स ।। मूलाराधना, ७/१९०७ ४ (क) गोम्मटसार, जीवकाण्ड गाथा, गाथा ४९४ (ख) उत्तराध्ययननियुक्ति, गाथा ५३९ ५. उत्तराध्ययननियुक्ति, गाथा ५४०; ६. प्राचीन पंचसंग्रह १ - १४२; ७. धवला, पु-१, पृ. १५० ८. गोम्मटसार, जीवकाण्ड ४८९ ९. तत्त्वार्थवार्तिक २, ६, ८, १०. पंचास्तिकाय जयसेनाचार्य वृत्ति १४०; ११. लिश्यते प्राणी कर्मणा यया सा लेश्या । - स्थानांग अभयदेववृत्ति ५१, पृष्ठ ३१; १२. कृष्णादि द्रव्यसाचिव्यात् परिणामो य आत्मनः। स्फटिकस्येव तत्रायं लेश्याशब्दः प्रयुज्यते । । - ध्यानशतक हरिभद्रीयावृत्ति १४; १३. उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति पत्र ६५०; १४. (क) लेस्सासोधी अज्झवसाणविसोधिए होइ जनस्स। अज्झवसाणविसोधी, मंदलेसायस्य णादव्वा । मूलाराधना १।१९११ (ख) अन्तर्विशुद्धितो जन्तोः शुद्धिः सम्पद्यते बहिः । बाह्यो हि शुध्यते दोषः सर्वमन्तरदोषतः । - मूलाराधना (अमितगति) ७।१९६७ 53
SR No.005761
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMunichandrasuri, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages554
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & agam_pragyapana
File Size15 MB
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