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________________ श्री प्रज्ञापना सूत्र भाग १ उपयोग और पश्यता उनतीसवें, तीसवें और तेतीसवें, इन तीन पदों में क्रमशः उपयोग, पश्यता और अवधि की चर्चा है । प्रज्ञापना में जीवों के बोध-व्यापार अथवा ज्ञान-व्यापार के सम्बन्ध में इन पदों में चर्चा- विचारणा की गयी है, अतएव हमने यहाँ पर तीनों को एक साथ लिया है। जैन दृष्टि से आत्मा विज्ञाता है, उसमें न रूप है, न रस है, न गन्ध है। वह अरूपी है, लोकप्रमाण असंख्य प्रदेशी है, नित्य है, उपयोग उसका विशिष्ट गुण है। संख्या की दृष्टि से वह अनन्त है। उपयोग आत्मा का लक्षण भी है और गुण भी उपयोग में अवधि का समावेश होने पर भी इनके लिए अलग पद देने का कारण यह है कि उस काल में अवधि का विशेष विचार हुआ था। प्रस्तुत पद में उपयोग और पश्यता के दो-दो भेद किये हैं- साकारोपयोग (ज्ञान) और अनाकारोपयोग (दर्शन), साकारपश्यता और अनाकारपश्यता । आचार्य श्री अभयदेवसूरिजी ने पश्यता को उपयोग - विशेष ही कहा है। अधिक स्पष्टीकरण करते हुए यह भी बताया है कि जिस बोध में केवल त्रैकालिक अवबोध होता हो वह पश्यता है परन्तु जिस बोध में वर्तमानकालिक बोध होता है वह उपयोग है। यही कारण है कि मतिज्ञान और मति - अज्ञान को साकारपश्यता के भेदों में नहीं लिया है, क्योंकि मतिज्ञान और मत - अज्ञान का विषय वर्तमान काल में जो पदार्थ है वह बनता है। अनाकारपश्यता में अचक्षुदर्शन क्यों नहीं लिया गया है? इस प्रश्न का समाधान आचार्यश्री ने इस प्रकार किया है कि पश्यता प्रकृष्ट ईक्षण है और प्रेक्षण तो केवल चक्षुदर्शन में ही सम्भव है, अन्य इन्द्रियों द्वारा होने वाले दर्शन में नहीं। अन्य इन्द्रियों की अपेक्षा चक्षु का उपयोग स्वल्पकालीन होता है और जहाँ पर स्वल्पकालीन उपयोग होता है वहाँ बोधक्रिया में अत्यन्त शीघ्रता होती है। यही इस प्रकृष्टता का कारण है।" आचार्य श्री मलयगिरिजी ने लिखा है कि पश्यता शब्द रूढ़ि के कारण उपयोग शब्द की तरह साकार और अनाकार बोध का प्रतिपादन करने वाला है, तथापि यह समझना आवश्यक है कि जहाँ पर लम्बे समय तक उपयोग होता है वहीं पर तीनों काल का बोध सम्भव है। मतिज्ञान में दीर्घकाल का उपयोग नहीं है। इसलिए उसमें त्रैकालिक बोध नहीं होता, जिससे उसे पश्यता में स्थान नहीं दिया गया है।" यही है उपयोग और पश्यता में अन्तर । उपयोग और पश्यता इन दोनों की प्ररूपणा चौबीस दण्डकवर्ती जीवों में की गयी है। वस्तुतः इनमें विशेष कोई अन्तर नहीं है । पश्यतापद में केवलज्ञानी का ज्ञान और दर्शन का उपयोग युगपत् है या क्रमशः इस सम्बन्ध में भी चर्चा करते हुए तर्क दिया है कि ज्ञान साकार है और दर्शन अनाकार | इसलिए एक ही समय में दोनों उपयोग कैसे हो सकते हैं? साकार का अर्थ सविकल्प है और अनाकार का अर्थ निर्विकल्प। जो उपयोग वस्तु के विशेष अंश को ग्रहण करता है वह सविकल्प और जो उपयोग सामान्य अंश को ग्रहण करता है वह निर्विकल्प है। ज्ञान दर्शन : एक चिन्तन ज्ञान और दर्शन की मान्यता जैन साहित्य में अत्यधिक प्राचीन है। ज्ञान को आवृत करने वाले कर्म का नाम ज्ञानावरण है और दर्शन को आच्छादित करने वाला कर्म दर्शनावरण है। इन कर्मों के क्षय अथवा क्षयोपशम से ज्ञान और दर्शन गुण प्रकट होते हैं । आगम- साहित्य में यत्र-तत्र ज्ञान के लिए ' जाणइ' और दर्शन के लिए 'पासइ' शब्द व्यवहृत हुआ है। १. आचारांग ५/५ सूत्र १६५ २. आचारांग ५/६ सूत्र १७० - १७१; ३. गुणाओ उवओगगुणे । - भगवती २।१०।११८ ४. भगवती सूत्र, अभयदेव वृत्ति पृष्ठ ७१४; ५. प्रज्ञापना, मलयगिरि वृत्ति पृष्ठ ७३०; ६. तत्त्वार्थसूत्र भाष्य १४९ 59
SR No.005761
Book TitlePragnapana Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMunichandrasuri, Jayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages554
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & agam_pragyapana
File Size15 MB
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